जम्मू और कश्मीर में आरक्षण के खिलाफ कांग्रेस की साजिश: पिछड़ों के अधिकारों पर संकट मंडराया

जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में हाल के दिनों में कांग्रेस पार्टी की नीतियों और उसकी सहयोगी जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (JKNC) के घोषणापत्र ने एक बार फिर आरक्षण के मुद्दे को लेकर विवाद खड़ा कर दिया है. इस विवाद के केंद्र में पिछड़े, दलित, गुज्जर-बकरवाल और पहाड़ी समुदायों के अधिकार हैं, जो आर्टिकल 370 हटने के बाद से मिले आरक्षण से कुछ राहत की उम्मीद कर रहे थे.

कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपने घोषणापत्र में सत्ता में आने पर आरक्षण नीति की समीक्षा करने का वादा किया है, जिससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) को दिए गए नए अधिकार खतरे में पड़ सकते हैं. इस स्थिति ने उन समुदायों में गहरी चिंता पैदा कर दी है, जो लंबे समय से सामाजिक और आर्थिक न्याय की मांग कर रहे हैं.

कांग्रेस और सामाजिक न्याय का पुराना संघर्ष

कांग्रेस पार्टी का सामाजिक न्याय के प्रति विरोध कोई नई बात नहीं है. इसका इतिहास इस बात का गवाह है कि पार्टी ने हमेशा पिछड़े वर्गों, दलितों और अन्य हाशिये पर खड़े समुदायों के अधिकारों को कमजोर करने का काम किया है.

नेहरू और अंबेडकर के मतभेद:
पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच दलितों के अधिकारों और आरक्षण को लेकर गहरे मतभेद थे. नेहरू का दृष्टिकोण दलितों के राजनीतिक और सामाजिक उत्थान के लिए काफी सीमित था, जबकि अंबेडकर हमेशा से इन समुदायों के अधिकारों की वकालत करते रहे. 1952 और 1954 के चुनावों में, नेहरू ने अंबेडकर के खिलाफ व्यक्तिगत रूप से प्रचार किया और उन्हें हराने की कोशिश की. नेहरू ने आरक्षण के मुद्दे पर हमेशा से ही आरक्षण विरोधी नीति अपनाई.

काका कालेलकर आयोग की अनदेखी:
1956 में नेहरू ने काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया, जो कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सिफारिश कर रही थी. इस रिपोर्ट को नकारकर उन्होंने पिछड़े वर्गों को मिलने वाले अवसरों को सीमित कर दिया.

इंदिरा गांधी और मंडल आयोग:
इंदिरा गांधी का भी पिछड़ों के प्रति रवैया विशेष रूप से नकारात्मक था. 1980 में जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का समय आया, तो इंदिरा गांधी ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया. मंडल आयोग ने OBC को आरक्षण देने की सिफारिश की थी, लेकिन इंदिरा और उनके बेटे राजीव गांधी ने इसे नजरअंदाज कर दिया. 1990 में जब मंडल आयोग की सिफारिशों को वी.पी. सिंह की सरकार ने लागू किया, तब भी कांग्रेस ने इसका कड़ा विरोध किया. राजीव गांधी ने कहा था कि आरक्षण से कामकाज की उत्पादकता पर असर पड़ेगा, जो कि उनके पिछड़े वर्गों के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करता है.

अनुच्छेद 370 हटने के बाद की नई उम्मीद

5 अगस्त 2019 को जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाया, तो यह राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से एक ऐतिहासिक कदम था. आर्टिकल 370 के हटने से जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि, गुज्जर-बकरवाल, पहाड़ी और अन्य वंचित समुदायों को एक नई उम्मीद की किरण दिखी. ये समुदाय, जो लंबे समय से अधिकारों से वंचित थे, अब आरक्षण की नीति के तहत सरकारी नौकरियों और अन्य अवसरों में भागीदारी कर रहे हैं.

वाल्मीकि समुदाय के नेता घेलु राम का कहना है, “5 अगस्त 2019 का दिन हमारे लिए नई शुरुआत लेकर आया. आर्टिकल 370 के हटने के बाद हमें वह अधिकार और अवसर मिल रहे हैं, जो पहले असंभव लगते थे.”

गुज्जर-बकरवाल और पहाड़ी समुदायों को भी इसी तरह की राहत मिली. ये समुदाय सालों से अधिकारों से वंचित थे, और अब आरक्षण की नीति के तहत सरकारी सेवाओं और शिक्षा में अपनी जगह बना रहे हैं.

कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की साजिश

हालांकि, अब कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के घोषणापत्र ने इन समुदायों की उम्मीदों पर पानी फेरने की साजिश रची है. घोषणापत्र में कहा गया है कि अगर वे सत्ता में आते हैं, तो वे जम्मू-कश्मीर की आरक्षण नीति की समीक्षा करेंगे. इससे इन समुदायों में गहरी चिंता फैल गई है.

26 वर्षीय अनीता कुमारी, जो वाल्मीकि समुदाय से आती हैं, कहती हैं, “अगर आर्टिकल 370 को फिर से बहाल किया गया और आरक्षण नीति को खत्म कर दिया गया, तो हमारी सारी प्रगति ध्वस्त हो जाएगी. हमें अब अपने अधिकारों के लिए और भी अधिक सजग रहना होगा.”

राहुल गांधी की चुप्पी: कांग्रेस की मंशा पर सवाल

राहुल गांधी, जो खुद को संवैधानिक मूल्यों का रक्षक बताते हैं, इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चुप हैं. उनकी यह चुप्पी कांग्रेस की वास्तविक मंशा पर सवाल खड़ा करती है. क्या कांग्रेस वास्तव में सामाजिक न्याय और समानता की पक्षधर है, या फिर उसने केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन मुद्दों को हाशिये पर रखा है?

कांग्रेस के पुराने इतिहास को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी ने हमेशा से ही दलित और पिछड़े वर्गों के अधिकारों के खिलाफ काम किया है. राहुल गांधी का बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बयान देना और घरेलू मुद्दों पर चुप्पी साध लेना, जनता की आंखों में धूल झोंकने जैसा प्रतीत होता है.

2024 का चुनाव: एक निर्णायक मोड़

2024 का चुनाव जम्मू-कश्मीर के पिछड़े, दलित और अन्य वंचित समुदायों के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाला है. यह चुनाव केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और अधिकारों की लड़ाई भी है. अगर कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस का घोषणापत्र लागू होता है, तो इन समुदायों के अधिकार फिर से संकट में आ जाएंगे.

वाल्मीकि, गुज्जर-बकरवाल, पहाड़ी और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों को अब अधिक सतर्क और संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा. यह लड़ाई केवल राजनीतिक नहीं है, बल्कि यह उनके अस्तित्व और उनके अधिकारों की रक्षा की लड़ाई है.

निष्कर्ष:

कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा आरक्षण नीति की समीक्षा करने की योजना, जम्मू-कश्मीर के वंचित और पिछड़े वर्गों के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकती है. आर्टिकल 370 के हटने के बाद जो उम्मीद की किरण जगी थी, उसे कांग्रेस की नीतियां एक बार फिर से धूमिल कर सकती हैं. अब समय आ गया है कि पिछड़े वर्ग अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर कांग्रेस की इस साजिश के खिलाफ आवाज उठाएं, ताकि उनके अधिकार सुरक्षित रह सकें और सामाजिक न्याय की दिशा में उनकी यात्रा जारी रह सके.

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