‘तुम नहीं आए थे…’ अली सरदार जाफरी के वो अल्फाज, जो आज भी बसते हैं हर दिल में

New Delhi, 28 नवंबर . ‘तुम नहीं आए थे…’ ये चार शब्द ऐसे हैं जैसे किसी बंद कमरे में अचानक बज उठी कोई पुरानी धुन. ये धीरे-धीरे दिल तक उतरती हुई, एक हल्की सी खनक छोड़ जाती है. अली सरदार जाफरी की ये नज़्म सिर्फ एक शेर नहीं, एक एहसास है और शायद इसी वजह से आज भी लाखों दिलों में गूंजती है. उनकी शायरी महज अल्फाज का खेल नहीं, बल्कि जिंदगी की असल तस्वीर है. वो तस्वीर जिसमें दर्द है, मोहब्बत है, इंतजार है और उम्मीदों की एक लंबी, गहरी सांस भी है.

29 नवंबर 1913 को जब वो इस दुनिया में आए होंगे, तब शायद किसी को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि यह बच्चा आगे चलकर उर्दू की दुनिया में एक ऐसा नाम बनने वाला है जिसे लोग पीढ़ियों तक याद करेंगे. जाफरी ने शायरी सिर्फ लिखी नहीं, उन्होंने उसे पूरे शौक और पूरे जज्बे से जिया भी. उनके अल्फाज में हमेशा जिंदगी की उलझने होती थीं, जैसे वे हर इंसान का दर्द पढ़ लेते हों और उसे अपनी शायरी में पिरो देते हों.

सरदार जाफरी कहा करते थे कि कलमा और तकबीर के बाद जो पहली आवाज उनके कानों में पड़ी, वो मीर अनीस के मरसियों की थी. पंद्रह–सोलह साल की उम्र में उन्होंने खुद मरसिए लिखना शुरू कर दिया.

‘तुम नहीं आए थे जब तब भी तो मौजूद थे तुम…’ भी उनकी मशहूर रचनाओं में से एक है. शायद पढ़ने में ये आपको साधारण लगे, लेकिन असल में यह भावनाओं का एक पूरा समंदर है. जाफरी की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वे बड़े-बड़े एहसासों को भी बिल्कुल सहज तरीके से कह जाते हैं. उनकी शायरी में हमेशा विरोधाभास होते हैं. दर्द की लौ और प्यार की खुशबू, ये दोनों ही बातें आमतौर पर अलग-अलग लगती हैं, लेकिन वे इन्हें एक साथ पेश करते थे.

अगर बात करें उनकी पढ़ाई की, तो शुरुआती पढ़ाई घर पर हुई, फिर बलरामपुर के अंग्रेज़ी स्कूल में. उन्हें पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी, लिहाजा साल-दर-साल निकलते गए, और आखिरकार 1933 में जाकर हाईस्कूल पास हुआ. उसके बाद उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी भेजा गया, जहां उनकी जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया. 1936 में छात्र आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्हें यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया. लेकिन किस्मत देखिए, उसी विश्वविद्यालय ने आगे चलकर उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि दी.

इसके बाद उन्होंने दिल्ली के एंग्लो-अरबी कॉलेज से बी.ए. किया और फिर Lucknow यूनिवर्सिटी पहुंचे, जहां पहले एलएलबी और फिर अंग्रेज़ी में एमए किया. Lucknow उस समय Political गतिविधियों का केंद्र था और वहीं उन्होंने मजाज और सिब्ते हसन के साथ मिलकर 1939 में साहित्यिक पत्रिका ‘नया अदब’ और अखबार ‘पर्चम’ की शुरुआत की. यह वो दौर था जब जाफरी सिर्फ शायर नहीं रहे, वे एक आंदोलन की आवाज बन गए.

1960 के दशक में उन्होंने पत्रकारिता और साहित्यिक गतिविधियों में और भी सक्रिय भूमिका निभाई. उन्होंने ‘गुफ्तगू’ नाम की प्रगतिशील साहित्य की पत्रिका का संपादन किया, Maharashtra उर्दू अकादमी के निदेशक बने, प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे और कई राष्ट्रीय संस्थाओं से जुड़े रहे.

सिर्फ़ शायरी ही नहीं, उन्होंने इकबाल, कबीर, आजादी के आंदोलन और उर्दू के बड़े शायरों पर अनमोल डॉक्यूमेंट्री बनाईं. मीर और गालिब के दीवानों को जिस सुंदरता से उन्होंने संपादित किया, उससे नई पीढ़ियों को इन महान शायरों को समझना आसान हुआ.

साहित्य की दुनिया में उन्होंने खूब नाम कमाया. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड मिला, और देश के सबसे बड़े साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया. Government ने भी उनकी सेवाओं के सम्मान में उन्हें पद्मश्री दिया, लेकिन आखिरकार समय अपने हिसाब से चलता है. उम्र बढ़ने के साथ उनकी तबियत ने साथ छोड़ना शुरू कर दिया और 1 अगस्त 2000 को दिल का दौरा पड़ने से अली सरदार जाफरी इस दुनिया से रुखसत हो गए.

पीआईएम/डीएससी