महिला दिवस : रशीदा-चंपा की यारी की चिंगारी से दिव्यांग बच्चों की जिंदगी रोशन

भोपाल, 8 मार्च . मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की रशीदा बी और चंपा देवी शुक्ला की दोस्ती बेमिसाल है, दोनों ने अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार में मिली राशि से भोपाल गैस कांड के प्रभाव के चलते दिव्यांग हुए बच्चों के जीवन में रोशनी को बिखरने का अभियान शुरू किया, जो निरंतर जारी है. अब तक वह अपने अभियान में 100 बच्चों की जिंदगी बदल चुकी है और कई बच्चों की जिंदगी में बदलाव लाने की कोशिशें जारी है.

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में यूनियन कार्बाइड से दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को रिसी जहरीली गैस ने हजारों लोगों को लील लिया था. इतना ही नहीं, हजारों लोग इसके दुष्प्रभाव के भी शिकार बने हादसे के बाद जन्मे बच्चे भी बड़ी संख्या में विकलांगता का शिकार हो रहे हैं. भोपाल गैस हादसे से मिले जख्मो से जूझती इन दो महिलाओं की दोस्त बनने की कहानी अलग है.

परिवार की आर्थिक स्थिति गड़बड़ होने के कारण रशीदा बी और चंपा देवी शुक्ला ने महिलाओं के साथ राज्य सरकार द्वारा गैस पीड़ितों के लिए शुरू की गई योजना में काम करना शुरू किया. इन सौ महिलाओं में एक तरफ 50 महिलाएं हिंदू वर्ग से थी, जिनका नेतृत्व चंपा देवी शुक्ला के पास था और दूसरी ओर 50 महिलाओं का नेतृत्व रशीदा बी के पास. सरकार ने जब प्रशिक्षण को बंद किया तो इन दोनों महिलाओं ने आंदोलन की कमान संभाली. रशीदा बी व चंपा देवी बताती हैं कि एक तरफ जहां वे अपने परिवार के जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रही थीं, उसी दौरान उनके सामने दो बड़ी समस्याएं आईं . चंपा देवी की बेटी के यहां संतान ने जन्म लिया, जो विकलांग थी. इसी तरह का मामला रशीदा बी के परिवार में आया, उसकी बहन ने भी जिस बच्चे को जन्म दिया वह विकलांग था. इन स्थितियों के बीच दोनों ने गैस पीड़ित विकलांग बच्चों के जीवन को सुधारने का अभियान शुरू किया.

वे बताती हैं कि उनके इस अभियान के चलते ही अमेरिका की संस्था ने उन्हें गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार देने का ऐलान किया. पुरस्कार लेने से पहले दोनों ने तय किया कि वह चिंगारी नाम की संस्था बनाएंगी और पुरस्कार में मिलने वाली राशि से इस संस्था को आगे बढ़ाएंगी. रशीदा बी के लिए चंपा देवी बड़ी बहन के समान हैं, तो चंपा देवी के लिए रशीदा छोटी बहन जैसी. वर्ष 1985 से शुरू हुई दोस्‍ती ने वर्ष 2006 में एक बड़े अभियान का रूप ले लिया. पुरस्कार में मिले एक लाख 25000 डॉलर (उस समय लगभग 58 लाख रुपये) से चिंगारी ट्रस्ट की शुरुआत हुई.

वे बताती हैं कि बीते 18 साल में 1360 दिव्यांग बच्चों का पंजीयन हुआ, इनमें से 100 बच्चे पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं और वे आम लोगों की तरह जिंदगी जी रहे हैं. वे अपना रोजगार कर रहे हैं. कई लड़के-लड़कियों की तो शादी तक हो चुकी है. चिंगारी ट्रस्ट के विद्यालय में बच्चों को फिजियोथैरेपी दी जाती है, स्पीच थेरेपी विशेषज्ञ आते हैं . इतना ही नहीं, विद्यालय आने वाले बच्चों के लिए संस्था की ओर से वाहन की व्यवस्था है, जो उन्हें घर से लेने और छोड़ने का काम करता है. संस्था में एक वक्त का भोजन भी इन बच्चों को दिया जाता है.

रशीदा और चंपा बताती हैं कि अमेरिका की एक महिला चिकित्सक ने उनकी संस्था का दौरा किया और बच्चों के लिए पोषण युक्त भोजन की बात पर जोर दिया. उन्होंने सिर्फ सलाह ही नहीं दी, बल्कि एक वक्त के भोजन का खर्च भी वह स्वयं उठा रही हैं. बच्चों को विभिन्न विटामिनों से भरपूर भोजन मिल रहा है, जिसके चलते बच्चों की सेहत में सुधार भी तेजी से हो रहा है. इन दोनों महिलाओं को अफसोस इस बात का है कि उनके इस अभियान में प्रदेश की सरकार मदद के लिए आगे नहीं आती. वह चाहती हैं कि जिस तरह का प्रयास उन्होंने किया है, इस तरह का प्रयास सरकार भी करे तो ज्यादा से ज्यादा बच्चों को अपनी जिंदगी बदलने का अवसर मिलेगा.

एसएनपी/