नई दिल्ली, 27 अगस्त . 27 अगस्त 2013 से का ही वो दिन था. यूपी का मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलसता चला गया. कई दिनों तक दंगाइयों के कारनामे में लोग दहशत के साए में जीने को मजबूर हो गए. इन दंगों में करीब 60 से अधिक लोग मारे गए और कई दर्जन लोग घायल हुए. हजारों लोगों को डर के साये में अपना घर तक छोड़ना पड़ा. गंगा-जमुनी तहजीब के लिए जाने जाना वाला मुजफ्फरनगर आज भी उन जख्मों को नहीं भूला पाया है. कैसे एक चिंगारी भड़की और उसने पूरे इलाके को आग में झोंक दिया उसका उदाहरण यहीं देखने को मिला. आखिर कहां से शुरू हुआ हिंसा का खेल!
लेखक संदीप विरमानी और तन्वी चौधरी की किताब “मुजफ्फरनगर डायरी- दंगों के बाद पुनर्वास की कहानी” में घटनाक्रम को विस्तार से बताया गया है. किताब के मुताबिक, वाहीद नाम के शख्स के हवाले से बताया गया कि करीब 60 परिवारों ने दंगों के दौरान संजीव कुमार के घर में पनाह ली थी. करीब 24 घंटे तक सभी 60 परिवार उनके घर में रहे. घर की महिलाएं सभी के लिए खाना बनाती थीं और उनके पति हाथों में राइफल लेकर घरों के बाहर पहरा देते थे.
किताब के अनुसार, संजीव को 60 परिवारों के शरण देने पर देशद्रोही तक कहा गया, लेकिन उन्होंने सभी से वादा किया था कि उनके संरक्षण में वह सुरक्षित हैं, अगर किसी को कुछ करना होगा तो पहले उनको मारना होगा. बाद में उसी शाम सेना ने मोर्चा संभाला और उसके बाद सभी परिवार को सेना को सुरक्षित सौंप दिया गया था.
इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगों पर कई और किताबें छपी हैं. इन किताबों में दंगों के कारण, इस हिंसा के जिम्मेदार और वहां के हालात को बयां किया गया है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन दंगों की शुरुआत हुई थी मुजफ्फनगर के कवाल गांव से. कवाल गांव में एक लड़की के साथ छेड़खानी की गई. आरोप था कि समुदाय विशेष का लड़का दूसरे धर्म की लड़की को छेड़ता था. लड़की ने अपने भाइयों को इस बारे में बताया. मारपीट हुई और कहा जाता है कि लड़का मारा गया. बाद में लड़की के भाइयों की हत्या हो गई.
छेड़खानी की घटना से शुरु हुआ ये विवाद खूनी खेल में बदल गया. इसके बाद मुजफ्फरनगर में हिंसा की ऐसी आग भड़की की, उसे रोक पाना मुश्किल हो गया. इन घटनाओं के बाद मुजफ्फनगर में महापंचायतें और भड़काऊ भाषणों का दौर शुरू हुआ. जिसने दंगों को चिंगारी देने का काम किया.
हालात इतने खराब हुए कि पुलिस और प्रशासन भी बेबस हो गया. डर के कारण पुलिस थाने खाली हो गए. इसके बाद सड़कों पर मौत का खूनी खेल खेला गया. ये भारतीय इतिहास का पहला ऐसा दंगा था, जो गांवों में भयानक रूप ले चुका था. मुजफ्फरनगर का कोई गांव ऐसा नहीं था, जो इन दंगों की आग से बच पाया हो.
हर तरफ से चीख पुकार और आग की लपटें ही दिखाई दे रही थीं. इस हिंसा में दर्जनों लोग मारे गए और 40 हजार से अधिक लोग प्रभावित हुए. इन दंगों को कवर कर रहे एक पत्रकार को अपनी जान गंवानी पड़ी.
दंगा फैलते ही शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया और शहर को सेना के हवाले कर दिया गया. कर्फ्यू लगने और सेना की मौजूदगी के बावजूद अगले तीन दिनों तक मुजफ्फनगर हिंसक झड़पों से जूझता रहा. इन दंगों की आग मुजफ्फरनगर के पड़ोसी जिलों तक पहुंची. बागपत, सहारनपुर और मेरठ में भी कुछ घटनाएं दर्ज की गई.
मुजफ्फनगर दंगों की देश के तमाम सियासी दलों ने निंदा की . बहुजन समाज पार्टी, भाजपा, राष्ट्रीय लोकदल और जमियत उलेमा-ए-हिन्द समेत कई संगठनों ने समाजवादी पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन की मांग कर दी. बाद में, 17 सितंबर तक, सभी दंगा प्रभावित क्षेत्रों से कर्फ्यू हटा लिया गया था. साथ ही सेना को भी वापस बुला लिया गया था.
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एफएम/केआर