बिहार में मतदाताओं को कांग्रेस की गठबंधन वाली सियासत नहीं पसंद

पटना, 2 अप्रैल . कांग्रेस भले ही अपने खोए वजूद को तलाशने के लिए बिहार में गठबंधन का सहारा लेती रही है, लेकिन मतदाताओं को कांग्रेस की यह सियासत पसंद नहीं आती है. यही कारण है कि कांग्रेस का बिहार में ग्राफ गिरता जा रहा है. कहा तो यहां तक जाता है कि गठबंधन को लेकर पार्टी के अंदर भी नाराजगी है.

लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस के कई दिग्गज नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. इस चुनाव के पूर्व भले ही कांग्रेस ने कई सीटों पर दावेदारी की थी, लेकिन इस चुनाव में भी पिछले चुनाव की तरह नौ सीटों पर पार्टी को संतोष करना पड़ा.

पिछले दो लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस को 40 में 10 से नीचे ही सीटें मिल रही हैं. कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने जब से गठबंधन की राजनीति शुरू की तब से ग्राफ गिरा है. वर्ष 1998 में संयुक्त बिहार (झारखंड के साथ) में 54 सीटों में से 21 सीटें कांग्रेस के खाते में आई थी, लेकिन कांग्रेस 5 सीट ही जीत सकी थी. 1999 में कांग्रेस के खाते में सीटों की संख्या घटकर 16 हो गई और कांग्रेस के चार उम्मीदवार ही जीत सके.

2004 में 40 में से कांग्रेस ने 3 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 2009 में कांग्रेस ने गठबंधन से अलग होकर सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और दो सीटों पर जीत दर्ज की. कांग्रेस 2014 में एक बार फिर गठबंधन के तहत चुनाव मैदान में उतरी और 11 सीटों पर चुनाव लड़ी, जिसमें दो सीट पर जीत दर्ज की. 2019 में 9 सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे और सिर्फ एक सीट पर जीत दर्ज कर सकी.

कांग्रेस नेता इस मामले पर खुलकर तो नहीं बोलते हैं, लेकिन नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं कि कांग्रेस आज गठबंधन के कारण सीमांचल और पश्चिम मध्य बिहार में ही सिमट कर रह गई. आज कांग्रेस का लाभ सहयोगी दलों को मिल रहा है. स्थिति ऐसी आ गयी है कि परंपरागत सीट भी खोनी पड़ रही है.

उन्होंने कहा कि महागठबंधन में सीट बटवारे में कांग्रेस के साथ न्याय नहीं होता है. सीट बंटवारे में औरंगाबाद, बेगूसराय और वाल्मिकीनगर सीट नहीं मिली, जबकि पटना साहिब, महाराजगंज, बेतिया और भागलपुर जैसी सीटें दी गई. इस चुनाव में भी महागठबंधन के तहत कांग्रेस, राजद और वामपंथी दल साथ में चुनावी मैदान में उतरे हैं.

एमएनपी/एबीएम