वी. शांताराम: एक ऐसे फिल्मकार, जिनकी फिल्मों के चार्ली चैपलिन भी थे मुरीद

New Delhi, 17 नवंबर . भारतीय सिनेमा के इतिहास में वी. शांताराम एक ऐसी शख्सियत थे, जिनके बाद उन जैसा न कोई था और शायद न कोई होगा. भारतीय सिनेमा के ‘पितामह’ कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के के बाद वी. शांताराम का नाम उस फेहरिस्त में आता है, जिनका योगदान फिल्म जगत में अतुलनीय रहा है.

1950 और 1960 के दशक को अक्सर हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है. यह पहली बार था जब दर्शकों को दूरदर्शी फिल्म निर्माताओं से रूबरू कराया गया, जिन्होंने भारतीय सिनेमा के आदर्श को आकार दिया. कई महान फिल्में और दिग्गज कलाकार सामने आए थे. उन्हीं में से एक वी. शांताराम थे, जिन्होंने ऐसी फिल्में भी बनाईं जो नए और अभिनव रूपों में पर्दे पर उतरीं. अलग-अलग शैलियों में काम करते हुए उन्होंने ऐसी फिल्में बनाईं, जो सामाजिक समस्याओं और कला सिनेमा का एक मिलाजुला स्वरूप थीं.

18 नवंबर 1901 को Maharashtra के कोल्हापुर में एक मराठी जैन परिवार में जन्मे वी. शांताराम को सभी प्यार से ‘अन्ना साहब’ भी कहा करते थे. बाबूराव पेंटर की Maharashtra फिल्म कंपनी के बैनर तले 1921 में ‘सुरेखा हरण’ बनी, जिससे शांताराम ने बतौर Actor शुरुआत की. यह वह दौर था, जब मूक फिल्म चला करती थीं.

वी. शांताराम ने बहुत शुरू में ही पहचान लिया था कि फिल्म का माध्यम बड़ा मजबूत है और उसमें वो दमखम है कि जनमानस तक बहुत सारे ख्याल और कहानियां पहुंचाई जा सकती हैं.

1930 से पहले ही भारतीय सिनेमा में हॉलीवुड जैसी स्टूडियो संस्कृति कदम रख चुकी थी. 1929 के आते-आते वी. शांताराम ने प्रभात फिल्म कंपनी बनाई थी, जिसमें उनके साथ विष्णुपंथ दामले, केआर धायबर, एस फतेलाल और एसबी कुलकर्णी थे. वी. शांताराम के डायरेक्शन में पहली मराठी फिल्म ‘अयोध्येचा राजा’ बनाई गई.

1942 के आते-आते उन्होंने प्रभात फिल्म कंपनी छोड़ दी और Mumbai में नई राजकमल कलामंदिर फिल्म कंपनी बनाई.

यह सिर्फ कंपनी नहीं थी, बल्कि यह राजकमल स्टूडियो था. उसी दौर में बॉम्बे टॉकीज में जर्मन सिनेमा का असर हुआ करता था. चार्ली चैपलिन की झलक होती थी, जबकि कई फिल्मों में हॉलीवुड के थ्रिलर्स का प्रभाव था. लेकिन राजकमल स्टूडियो भारतीय संस्कृति, साहित्य और संगीत को अपनी बुनियाद बनाकर चला. बाद में यह वह फिल्म स्टूडियो साबित हुआ, जिसने India की आत्मा को सिल्वर स्क्रीन पर उतारा.

राजकमल स्टूडियो बहुत सारे कलाकारों के लिए पहचान का मंच बना. कई ऐसी फिल्में बनाई गईं, जिन्होंने इतिहास रचा.

कहा जाता है कि फिल्म जगत की विभूति चार्ली चैपलिन भी शांताराम की फिल्मों के प्रति दिलचस्पी दिखाने लगे थे. उन्होंने उनकी एक मराठी फिल्म ‘मानुष’ देखी, जिसे देखकर वे काफी प्रसन्न थे और उन्होंने वी. शांताराम की खूब तारीफ की थी.

फिल्मों में उन्होंने जितेंद्र जैसे कई Actorओं को मौके दिए. शांताराम की फिल्मों में संगीत भी कमाल का रहा, चाहे वह ‘झनक झनक पायल बाजे’ रही हो, ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’ या ‘पिंजरा’.

उन्हें बहुत से फिल्म पुरस्कारों से नवाजा गया. ‘झनक झनक पायल बाजे’ और ‘दो आंखें बारह हाथ’ के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया था. 1985 में वी. शांताराम को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. फिर 1992 में उन्हें मरणोपरांत पद्म विभूषण भी मिला.

30 अक्टूबर 1990, फिल्मी जगत के लिए वह दुखद दिन था, जब ये महान कलाकार दुनिया को छोड़कर चला गया.

डीसीएच/वीसी