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Mumbai , 29 अक्टूबर . भारतीय सिनेमा की दुनिया में कई महान फिल्मकार आए और गए, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने केवल कहानियां नहीं सुनाईं, बल्कि फिल्मों के तकनीकी रूप को भी बदलकर रख दिया. ऐसे ही दिग्गज फिल्मकार थे वी. शांताराम.
वह न केवल Actor और निर्देशक थे, बल्कि फिल्मों की तकनीक में नए प्रयोग करने वाले नेतृत्वकर्ता भी थे. उनकी फिल्में हमेशा समाज को संदेश देने वाली और मनोरंजन से भरपूर होती थीं, लेकिन उन्होंने हमेशा यह भी सुनिश्चित किया कि फिल्मों में कैमरे और विजुलाइजेशन का प्रयोग नई ऊंचाइयों तक पहुंचे.
वी. शांताराम का जन्म 18 नवंबर 1901 को Maharashtra के कोल्हापुर में हुआ. उनका असली नाम राजाराम वानकुद्रे था. बचपन से ही उनका झुकाव कला और थिएटर की ओर था. उन्होंने गंधर्व नाटक मंडली में काम किया. आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी, लेकिन फिल्मों का उनका जुनून कभी कम नहीं हुआ.
19 साल की उम्र में शांताराम ने बाबू राव पेंटर की Maharashtra फिल्म कंपनी से जुड़कर फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखनी शुरू की. 1921 में उन्होंने मूक फिल्म ‘सुरेखा हरण’ में Actor के रूप में कदम रखा. इसके बाद उन्होंने कई फिल्मकारों और कलाकारों से मिलकर अनुभव और ज्ञान हासिल किया. 1929 में उन्होंने अपनी खुद की फिल्म कंपनी प्रभात फिल्म्स की स्थापना की. प्रभात कंपनी के बैनर तले उन्होंने ‘खूनी खंजर’, ‘रानी साहिबा’, और ‘उदयकाल’ जैसी फिल्में बनाई.
शांताराम हमेशा अपनी फिल्मों में तकनीक और नवाचार पर ध्यान देते थे. उन्होंने हिंदी सिनेमा में मूविंग शॉट्स का प्रयोग पहली बार किया. इसके अलावा, फिल्म ‘चंद्रसेना’ में उन्होंने पहली बार ट्रॉली कैमरे का उपयोग किया, जिससे सीन्स को शूट करने में आसानी और गहराई आई. उस दौर में यह प्रयोग बहुत नया और साहसिक माना जाता था. शांताराम के इन प्रयोगों ने हिंदी फिल्मों में कैमरा तकनीक की दिशा बदल दी और आने वाले फिल्मकारों के लिए प्रेरणा बन गए.
वी. शांताराम की फिल्मों में केवल तकनीक ही नहीं, बल्कि समाज को संदेश देने वाले विषय भी होते थे. उन्होंने ‘संत तुकाराम’ जैसी फिल्म बनाई, जो सुपरहिट हुई और पहली भारतीय फिल्म थी जिसे वेनिस फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया गया. 1942 में उन्होंने प्रभात फिल्म्स को अलविदा कहकर Mumbai में राजकमल फिल्म्स और स्टूडियो की स्थापना की. इसके तहत उन्होंने ‘शकुंतला’ और ‘झनक झनक पायल बाजे’ जैसी फिल्में बनाई, जिनमें तकनीक और कला का बेहतरीन मिश्रण देखने को मिला.
1958 में प्रदर्शित उनकी फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया और सिल्वर बीयर अवॉर्ड तथा सैमुअल गोल्डन अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के पुरस्कार से नवाजा गया. इस फिल्म में तकनीकी प्रयोग और कैमरा शॉट्स ने दर्शकों को बेहद प्रभावित किया.
वी. शांताराम ने अपने छह दशक लंबे करियर में लगभग 50 फिल्मों का निर्देशन किया. वे हमेशा इस बात के पक्षधर थे कि फिल्म केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और नई तकनीक को अपनाने का माध्यम भी हो. उनके इस योगदान को देखते हुए 1985 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
वी. शांताराम का निधन 30 अक्टूबर 1990 को हुआ. उनके मरणोपरांत उन्हें पद्मविभूषण से भी नवाजा गया. उनकी फिल्मों ने न केवल दर्शकों के दिलों में जगह बनाई बल्कि हिंदी सिनेमा को तकनीकी रूप से भी नया मुकाम दिया.
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पीके/एएस