आपातकाल के दौरान कुछ इस तरह संघर्ष करते रहे नरेंद्र मोदी, साथियों ने बताया कि कोई भी तब उन्हें नहीं पहचान पाया

नई दिल्ली, 25 जून . 1975 में जब इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान आपातकाल लगाई गई तो उस समय नरेंद्र मोदी महज 25 साल के थे. उन्होंने तब भी सरकार के इस दमनकारी फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी. वह लगातार सरकार विरोधी प्रदर्शन का हिस्सा रहे थे. उन्होंने आपातकाल की समाप्ति के बाद 1978 में अपनी पहली पुस्तक ‘संघर्ष मा गुजरात’ लिखी, जो गुजरात में आपातकाल के खिलाफ भूमिगत आंदोलन में एक नेता के रूप में उनके अनुभवों का एक संस्मरण है. इस किताब को खूब सराहा गया और व्यापक रूप से स्वीकार किया गया.

बता दें कि इस आपातकाल के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ जितना संघर्ष कर रहे थे. स्वयंसेवकों के परिवार और अन्य लोगों के परिवार जो उस आंदोलन के दौरान या तो सरकार के द्वारा जेल में डाल दिए गए थे या फिर सरकार से छिपते घूम रहे थे. उन सबको सहारा और ढांढस देने का भी काम किया था. वह हर ऐसे परिवार के लोगों से मिल रहे थे जिनके परिवार का मुखिया या तो जेल में था या फिर पुलिस के डर से छिपता फिर रहा था. वह सभी परिवारों से मिलते उनकी जरूरतें समझते, उनका कुशल क्षेम पूछते और हर संभव मदद करते और आश्वासन भी देते थे.

ऐसे ही कुछ लोगों ने उस आपातकाल के दौर को याद किया और बताया कि कैसे नरेंद्र मोदी उस दौर में भी उनके साथ परिवार के एक सदस्य के रूप में तटस्थ होकर खड़े रहे.

राजन दायाभाई भट्ट ने बताया कि 1975 में आपातकाल के दौरान मेरे पिताजी भूमिगत हो गए थे, मैं छोटा था और मेरी मां अकेली थी. इस दौरान नरेंद्र मोदी हमारे घर आया करते थे. मां से मिलते और कहते थे कि किसी भी चीज को लेकर चिंता मत करो.

अजीत सिंह भाई गढ़वी ने बताया कि 1975 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी. उस वक्त नरेंद्र मोदी पूरे भारत में भेष बदलकर इधर-उधर जाया करते थे. नरेंद्र मोदी पंजाब में सरदार बनकर गए थे.

देवगन भाई लखिया ने कहा कि 1975 में इमरजेंसी लगाई गई थी. इसके तुरंत बाद नरेंद्र मोदी को एक आयोजक बनाया गया. जो सभी लोगों को नया फोन नंबर देते थे. उस समय गुजरात में 5 डिजिट का फोन नंबर होता था. ऐसे नरेंद्र मोदी ने एक तरीका बताया कि आखिर के दो नंबर उसको उल्टा कर दो. जिसके जरिए सभी वर्कर एक दूसरे के संपर्क में आ गए.

डॉ. आर के शाह ने बताया कि 1975 में इमरजेंसी के दौरान देश के सभी नेताओं के साथ चाहे विरोधी पार्टियों को नेता क्यों न हो. नरेंद्र मोदी का उनके साथ लगातार संपर्क रहता था. जब वह नेता अहमदाबाद आते थे तो उनके लिए सारी व्यवस्था वही करते थे. यह सब वह अंडर ग्राउंड होते हुए करते थे.

हसमुख पटेल ने बताया कि आपातकाल के दौरान जो आंदोलन चल रहा था उसमें नरेंद्र भाई के पास जो साहित्य आता था उसको कहां रखना है किन लोगों को देना है इसके लिए मार्गदर्शन वही करते थे. वह बताते थे कि यह साहित्य नाई की दुकानों पर रखो जहां ज्यादातर सामान्य लोग आते हैं. इसके साथ ही जो प्रवचन करते हैं, लोगों को उपदेश देते हैं उन तक पहुंचाओ क्योंकि उनके पास बड़ी संख्या में लोग आते हैं.

कांतिभाई व्यास ने बताया कि आपातकाल के समय गुजरात में स्वयंसेवकों का बड़ा योगदान रहा और उसमें से नरेंद्र भाई का योगदान सबसे अलग और अहम था.

किरोड़ीलाल मीणा ने बताया कि भूमिगत होकर भी सभी तरह के साहित्य का प्रकाशन और वितरण नरेंद्र मोदी कराते थे और पूरे देश में इसे भेजना और उसका वितरण करना इसकी जिम्मेदारी भी उनके पास थी.

नागर भाई चावड़ा ने कहा कि जब आपातकाल लगा तो संघ को बैन कर दिया गया लेकिन आंदोलन पूरे देश में चल रहा था. ऐसे में किसी को पता नहीं चल रहा था कि आंदोलन कौन चला रहा है. लेकिन, तब पूरे देश में जो आंदोलन चल रहा था वह एक ही व्यक्ति चला रहा था और वह थे नरेंद्र भाई मोदी. यह बाद में पता चला. नरेंद्र भाई तब साधु वेष में घूमते रहते थे और सभी पोस्टर पर्चे सब वही छपवाते और इसे कैसे बांटना है और कहां पहुंचाना है यह सब वही करते थे. एक बार तो मुझे आदेश मिला कि किसी को विदेश भेजना है और और तुम्हें वडोदरा स्टेशन पर उसका बेटा बनकर आना है और मुंबई जाना है. बाद में पता चला कि यह आदेश भी नरेंद्र भाई मोदी ने ही दिया था. और जिसका बेटा बनकर मैं मुंबई गया वह तो विद्युत मंत्री मकरंद भाई देसाई थे.

प्रकाश मेहता ने कहा कि जब यह आंदोलन चल रहा था तो नरेंद्र मोदी मेरे घर पर कई बार अलग-अलग वेष में आए. एक बार साधु बनकर आए, एक बार सामान्य नागरिक के भेष में आए, एक बार सरदार बनकर आए. उनका आइडिया था कि गुजरात में जो साहित्य छपता था सरकार के खिलाफ उसे हम ट्रेन के जरिए अलग-अलग जगह भेजते थे. हम उसे ट्रेन में लोगों को दे आते थे और उसी तरह हम देश के कोने-कोने में इसे पहुंचाते थे. एक बार उनका आदेश आया कि किसी को स्टेशन से लेना है और स्कूटर से उसको लेकर आना है और अमुख पते पर छोड़ना है. जब उन्हें मैंने उस पते पर छोड़ दिया तो एक महीने बाद पता चला कि वह तो दत्तोपंत जी ठेंगड़ी थे जो पूरे भारतीय मजदूर संघ का काम देखते थे.

राजीव दवे ने बताया कि एक बार वह सरदार के भेष में थे और ऑटो रिक्शा पर बैठे थे. वह ऑटो रिक्शा चालक भी सरदार था ऐसे में वह उनके साथ पंजाबी में बात करने लगा जिसमें उन्हें काफी कठिनाई हुई और बाद में उन्होंने ऑटो रिक्शा चालक को बताया कि मैं बचपन से गुजरात में रहा हूं इसलिए मेरी पंजाबी अच्छी नहीं है ऐसा कहकर उन्होंने अपने आप को बचा लिया था.

रोहित भाई अग्रवाल ने बताया कि 1975 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी तब नरेंद्र मोदी हमारे घर में सरदार बनकर आए थे. एक बार जब वह सरदार बनकर घर से बाहर जा रहे थे सामने से पुलिस वाले आए और नरेंद्र मोदी से ही पूछा कि नरेंद्र मोदी कहां रहते हैं. तो उन्होंने पुलिस वालों को बताया मैं नहीं जानता हूं आप अंदर जाकर पूछ सकते हैं. फिर मेरे भाई ने नरेंद्र मोदी को जहां जाना था अपने स्कूटर में बिठाकर वहां छोड़ दिया.

विष्णु पांडे ने बताया कि 12 मार्च को जब हम बैठक में शामिल हुए थे उसमें नरेंद्र मोदी, देशमुख, शंकर सिंह वाघेला और मैं भी था. हम पांचों को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि आप लोगों को बाहर रहना है. साहित्य, संगठन, संघर्ष और सत्याग्रह का काम करना है. उन्होंने आगे कहा कि नाथा लाल जगड़ा और नरेंद्र मोदी आर्थिक दृष्टि से जो लोग कमजोर थे जिनके पास खाने को भी पैसे नहीं थे. उनकी मदद करने के लिए पैसे इकट्ठा करते थे और उनकी मदद के लिए देते थे. हम जब भावनगर जेल में 200 से ज्यादा कार्यकर्ता बंद थे. उस हमारी सर्वोदय कार्यकर्ता की बहनें किताब और अन्य सामान देने के लिए आती थी. उस मौके का फायदा लेकर नरेंद्र मोदी आए और सभी से एक घंटे तक बात की, फिर वहां से निकल गए. खास बात रही है किसी को भी नहीं पता चला है कि वह नरेंद्र मोदी थे.

एसके/जीकेटी