भीकाजी कामा : क्रांति की मशाल, जिसने अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा

New Delhi, 23 सितंबर . कल्पना कीजिए उस दौर की जब महिलाओं का जीवन घर की चारदीवारी तक ही सीमित था. चूल्हा-चौका, बच्चों की परवरिश और परिवार का देखभाल ही उनका काम था. ऐसे समय में एक महिला ने इन सभी सीमाओं को तोड़कर इतिहास लिख दिया. उन्होंने केवल अपने घर की दहलीज नहीं लांघी, बल्कि विदेशी जमीन से India की आजादी की पुकार बुलंद की. उनका नाम है भीकाजी कामा – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक क्रांतिकारी महिला, जिन्होंने यह साबित कर दिया कि महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्र के लिए लड़ सकती हैं.

साल 1861 में 24 सितंबर को Mumbai के एक समृद्ध पारसी परिवार में जन्मीं भीकाजी कामा का बचपन सुख-सुविधाओं में बीता. उनके पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल जाने-माने व्यापारी थे. पिता ने उनकी शिक्षा पर हमेशा ध्यान दिया. कामा आधुनिक शिक्षा पाने वाली उन गिनी-चुनी महिलाओं में थीं, जिन्होंने भारतीय और विदेशी भाषाओं पर गहरी पकड़ बनाई. यह शिक्षा ही उनके विचारों को व्यापकता और साहस प्रदान करती गई. महज 24 साल की उम्र में एक संपन्न वकील रुस्तम कामा से उनकी शादी हुई.

हालांकि, भीकाजी कामा का वैवाहिक जीवन कभी सुखद नहीं रहा. पति-पत्नी के बीच विचारधारा के साथ-साथ मूल्यों को लेकर भी गहरे मतभेद थे. भीकाजी जहां अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता और अन्याय के खिलाफ मुखर थीं, तो वहीं उनके पति अंग्रेजों को India की तरक्की का साधन मानते थे.

साल 1896 में, जब Mumbai में ब्यूबोनिक प्लेग का प्रकोप फैला और चारों तरफ लाशों के ढेर थे, तब अंग्रेजी शासन की उपेक्षा और भारतीयों की पीड़ा को देखकर भीकाजी का दिल विद्रोह से भर गया. उन्होंने राहत कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लिया, लेकिन भीतर ही भीतर यह संकल्प ले लिया कि उनकी जिंदगी का एकमात्र उद्देश्य अब India को आजाद कराना है.

1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भीकाजी कामा ने तिरंगे को लहराकर India की आवाज दुनिया के सामने रखी. यह India का पहला झंडा था, जिसमें हरा, केसरिया और लाल रंग शामिल थे. उन्होंने अपने भाषण में ब्रिटिश शासन की बर्बरता का खुलासा किया और India की स्वतंत्रता की मांग को विश्व मंच पर गूंजाया. अंग्रेजों ने India में जब वंदे मातरम पर प्रतिबंध लगाया, तो उन्होंने ‘वंदे मातरम’ नामक पत्रिका छापना शुरू किया. वहीं, मदनलाल ढींगरा की शहादत के बाद उन्होंने ‘मदन की तलवार’ नामक पत्रिका भी शुरू की.

उनके लेख और भाषण इतने प्रभावशाली थे कि अंग्रेज Government उन्हें अपने लिए खतरा मानने लगी.

भीकाजी कामा ने पेरिस में ‘पेरिस इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की और श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर India के पहले झंडे की रूपरेखा तैयार की. वे लगातार भारतीय क्रांतिकारियों को सहयोग और दिशा देती रहीं. उनकी जिंदगी आसान नहीं थी. उन्हें हर हफ्ते थाने में हाजिरी लगानी पड़ती थी; इसके बाद भी उनका हौसला कभी कमजोर नहीं हुआ.

लगातार संघर्ष, जेल की धमकियों और निर्वासन के बाद 1935 में वे बीमार हालत में India लौटीं. 13 अगस्त 1936 को उनका निधन हो गया, लेकिन वे एक ऐसी विरासत छोड़ गईं, जिसने स्वतंत्रता संग्राम की धारा को तेज किया.

पीएसके/एएस