New Delhi, 21 सितंबर . “यह आशा करना व्यर्थ है कि जीवन में खतरे और कठिनाइयां नहीं आएंगी. वे तो आएंगी ही, लेकिन भक्त के लिए वे पानी की तरह पैरों तले बह जाएंगी.” यह वाणी रामकृष्ण परमहंस की जीवन संगिनी मां शारदा देवी के जीवन का मूल मंत्र थी, जिसे उन्होंने न सिर्फ अपनाया, बल्कि अपनी संपूर्ण जीवन-यात्रा में उतारकर दिखाया.
‘पवित्र माता’ के नाम से विख्यात शारदा देवी का जन्म 22 दिसंबर 1853 को पश्चिम बंगाल के जयरामबती गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ. बचपन से ही वे ईश्वर-भक्ति में रमी रहती थीं और गृहकार्य में अपनी मां की सहायता करती थीं.
लगभग 6 वर्ष की उम्र में, उस समय की सामाजिक परंपरा के अनुसार, उनका विवाह रामकृष्ण परमहंस से कर दिया गया. हालांकि विवाह के बाद वे अपने माता-पिता के साथ ही रहीं, जबकि रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में ईश्वर-लीन जीवन व्यतीत कर रहे थे. श्री रामकृष्ण मठ की वेबसाइट पर उनकी शादी का उल्लेख मिलता है.
18 साल की उम्र में वह अपने पति से मिलने दक्षिणेश्वर पैदल चलकर गईं. रामकृष्ण, जिन्होंने 12 सालों से भी अधिक समय तक अनेक आध्यात्मिक साधनाओं की गहन साधना में स्वयं को लीन कर लिया था, बोध की उस सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर चुके थे जहां उन्हें सभी प्राणियों में ईश्वर का दर्शन होता था. उन्होंने शारदा देवी का बड़े स्नेह से स्वागत किया और उन्हें अपने साथ रहने की अनुमति दी.
रामकृष्ण ने अपना तन-मन आध्यात्मिक खोज में समर्पित कर दिया था और एक संन्यासी का जीवन जी रहे थे. फिर भी उन्होंने सारदा का बहुत स्नेहपूर्वक स्वागत किया, यह महसूस करते हुए कि ईश्वरीय कृपा ही उन्हें यहां ले आई है.
जब पवित्र माता दक्षिणेश्वर आईं, तो रामकृष्ण ने उनसे पूछा कि क्या वे उन्हें सांसारिक जीवन में लाने के लिए आई हैं. बिना किसी हिचकिचाहट के उन्होंने कहा, “नहीं, मैं यहां आपको आपके चुने हुए आदर्श को साकार करने में मदद करने के लिए हूं.” तब से पवित्र माता रामकृष्ण के साथ उनकी आध्यात्मिक साथी, समर्पित पत्नी, शिष्या और सदैव भिक्षुणी के रूप में रहीं. इसका उल्लेख रामकृष्ण-विवेकानंद केंद्र, न्यूयॉर्क की वेबसाइट पर किया गया है.
इसके बाद रामकृष्ण ने उन्हें अपने गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए आध्यात्मिक जीवन जीने की शिक्षा दी. उन्होंने पूर्णतः सात्विक जीवन व्यतीत किया और शारदा देवी ने रामकृष्ण की समर्पित पत्नी और शिष्या के रूप में आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करते हुए उनकी सेवा की.
इसी बीच, शारदा देवी की जिंदगी में एक ऐसा वाकया हुआ, जब पति रामकृष्ण परमहंस ने उनकी पूजा की. रामकृष्ण ने शारदा देवी की दिव्य माता के रूप में अनुष्ठानपूर्वक पूजा की थी, जिससे उनमें निहित सार्वभौमिक मातृत्व जागृत हुआ. जब शिष्य रामकृष्ण के आसपास एकत्रित होने लगे तो शारदा देवी ने उन्हें अपनी संतान के रूप में देखना सीखा.
दक्षिणेश्वर में जिस कमरे में वे रहती थीं, वह रहने के लिए बहुत छोटा था और उसमें कोई भी सुविधा नहीं थी और कई दिनों तक उन्हें रामकृष्ण से मिलने का अवसर नहीं मिलता था. लेकिन उन्होंने सभी कठिनाइयों को चुपचाप सहन किया और संतोष व शांति से जीवन व्यतीत किया, और रामकृष्ण के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों की बढ़ती संख्या की सेवा की.
1886 में रामकृष्ण के देहावसान के बाद शारदा देवी ने कुछ महीने तीर्थयात्रा में बिताए और फिर कामारपुकुर चली गईं, जहां उन्होंने अत्यंत अभावों में जीवन बिताया. यह जानकर रामकृष्ण के शिष्य उन्हें कोलकाता ले आए. यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था. अब वे आध्यात्मिक साधकों को अपना शिष्य मानने लगीं. उनका विशाल सार्वभौमिक मातृ-हृदय, असीम प्रेम और करुणा से ओतप्रोत, बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को गले लगाता था, जिनमें पापमय जीवन जीने वाले भी शामिल थे.
श्री रामकृष्ण मठ की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, स्वामी विवेकानंद ने शारदा देवी को उनकी अप्रतिम पवित्रता, असाधारण सहनशीलता, निस्वार्थ सेवा, निस्वार्थ प्रेम, ज्ञान और आध्यात्मिक प्रकाश के कारण आधुनिक युग की महिलाओं के लिए आदर्श माना. उनका मानना था कि पवित्र मां के आगमन के साथ ही आधुनिक काल में महिलाओं का आध्यात्मिक जागरण शुरू हो गया था.
लगातार शारीरिक श्रम और आत्म-त्याग तथा मलेरिया के बार-बार होने वाले हमलों के कारण जीवन के अंतिम सालों में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया और 21 जुलाई 1920 को उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया.
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डीसीएच/