वैचारिक मतभेदों से भरे पड़े थे राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू के संबंध

नई दिल्ली, 28 फरवरी . आज देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की पुण्यतिथि है. वह लगातार दो बार देश के राष्ट्रपति रहे. राष्ट्रपति के तौर पर उनका कार्यकाल 1950 से 1962 तक रहा. लेकिन, आपको उनके और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच के रिश्ते के बारे में कम ही ज्ञात होगा. दोनों के बीच शुरू से ही वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद रहे, जबकि दोनों स्वतंत्रता संग्राम में एक साथ ही भाग ले चुके थे.

दोनों के बीच मतभेद की सबसे बड़ी वजह रही कि एक तरफ तो राजेंद्र प्रसाद शुरू से ही हिंदू परंपरावादी थे. वहीं दूसरी तरफ जवाहर लाल नेहरू की सोच आधुनिक और पश्चिमी रही. यह इन दोनों के बीच पटरी नहीं बैठने की सबसे बड़ी वजह थी.

ऐसे में आजाद भारत में जवाहर लाल नेहरू के तमाम विरोध के बावजूद राजेंद्र प्रसाद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए. यहां तक कहा जाता है कि देश के पहले राष्ट्रपति के तौर पर जवाहर लाल नेहरू सी राजगोपालाचारी को देखना चाहते थे. वहीं उनके दूसरे कार्यकाल के समय भी नेहरू चाहते थे कि देश के अगले राष्ट्रपति तत्कालीन उपराष्ट्रपति एस राधाकृष्णन बने. जबकि सरदार पटेल और कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की तरफ से लगातार राष्ट्रपति पद के लिए डॉ राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया गया. ऐसे में जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस की बात माननी पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर राजेंद्र प्रसाद के नाम को ही अपना समर्थन देना पड़ा.

जवाहर लाल नेहरू भी राजेंद्र प्रसाद की विलक्षण प्रतिभा और निर्विवाद छवि के कायल थे लेकिन दोनों के वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद हमेशा से बने रहे. ऐसे में 1950 में जवाहर लाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच पहला टकराव देखने को मिला. जब सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के पश्चात राजेंद्र प्रसाद को नेहरू की तरफ से वहां ना जाने की सलाह दी गई और उन्होंने इसे अनसुना कर दिया. वह इसे देश के सेक्युलर फैब्रिक से अलग धार्मिक पुनरुत्थान से जुड़ा मानते थे और ऐसे में इस तरह के कार्यक्रम में संवैधानिक मुखिया की अनुपस्थिति को अनुचित मान रहे थे. जबकि राजेंद्र प्रसाद इस मंदिर पुनर्निर्माण को लेकर कह रहे थे कि यह एक विदेशी आक्रांता के प्रतिरोध के स्वरूप नष्ट किया गया था, जिसे अब फिर से स्थापित किया गया है. ऐसे में मैं स्वयं को इससे अलग नहीं कर सकता हूं.

नेहरू राजेंद्र प्रसाद के इस व्यवहार से इतने नाराज हो गए कि उन्होंने सूचना-प्रसारण मंत्रालय को इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति के भाषण की सरकारी विज्ञप्ति जारी करने पर रोक लगा दी.

हिंदू कोड बिल जब आया तो वहां भी राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गए. प्रसाद इस बिल पर जनता की राय चाहते थे. हालांकि बाद में कांग्रेस को आम चुनाव में जनता के मिले व्यापक समर्थन के बाद राजेंद्र प्रसाद ने इस बिल को अपनी मंजूरी दे दी.

वहीं सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में उनके बंबई जाने को लेकर भी पंडित नेहरू ने आपत्ति जताई थी. इसके साथ ही 1952 में जब राजेंद्र प्रसाद काशी पहुंचे तो वहां उन्होंने वहां के कुछ विद्वान पंडितों के चरण धोये थे जिसको लेकर भी जवाहर लाल नेहरू ने आपत्ति दर्ज कराई थी.

पंडित नेहरू को लेकर यहां तक कहा गया कि उन्हें राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद आधुनिक भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि का प्रतिनिधित्व करते नहीं दिखते थे. यही वजह थी की राष्ट्रपति के तौर पर राजेंद्र प्रसाद के विदेश दौरों के प्रस्तावों को भा लटका दिया जाता था. ऐसे में राजेंद्र प्रसाद अपने पहले कार्यकाल में केवल नेपाल की यात्रा कर सके थे. बाद में उनके दूसरे कार्यकाल में उन्हें कुछ और विदेश यात्राओं का मौका मिला.

28 फरवरी 1963 को पटना में जब राजेंद्र प्रसाद का निधन हुआ तो उन्होंने अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम का हवाला देकर जवाहर लाल नेहरू ने उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने में असमर्थता जताई. इसके साथ ही कई किताबों में लिखित उद्धरण की मानें तो उन्होंने तब तत्कालीन राष्ट्रपति राधाकृष्णन से कहा था कि उनका भी वहां जाना जरूरी नहीं है. लेकिन, राधाकृष्णन ने इस पर असहमति व्यक्त करते हुए कहा था कि नहीं मेरा वहां जाना जरूरी है और वह वहां जाकर उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे.

जीकेटी/