विभाजन विभीषिका : आजादी की अग्नि परीक्षा, तारीख में कैद जीवन की सबसे भयानक त्रासदी

नई दिल्ली, 13 सितंबर . भारत की आजादी की तारीख 15 अगस्त 1947 थी. इस तारीख को भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया गया है. इस तारीख के इर्द-गिर्द कुछ ऐसी घटनाएं भी घटी, जो भारत के इतिहास और वर्तमान के लिए काफी अहम हैं. उनमें से एक तारीख 13 सितंबर 1947 है.

14 अगस्त 1947 की आधी रात पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश को संबोधित किया और भारत की आजादी की घोषणा की थी. रात के 11 बजे थे, संसद के सेंट्रल हॉल में कई दिग्गज मौजूद थे. रात के ठीक 11.55 बजे पंडित जवाहर लाल नेहरू माइक के पास पहुंचे और 4.41 मिनट का देश के नाम ऐतिहासिक संबोधन दिया था.

अपने इस ऐतिहासिक संबोधन में प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “बहुत सालों पहले हमने नियति से एक वादा किया था. अब वो समय आ पहुंचा है कि हम उस वादे को निभाएं… शायद पूरी तरह तो नहीं, लेकिन बहुत हद तक जरूर. आधी रात के समय जब पूरी दुनिया सो रही है, भारत आजादी की सांस ले रहा है.”

अगले दिन सुबह दिल्ली की सड़कों पर लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था. हर तरफ, चारों तरफ सिर्फ लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे. कहा जाता है कि 15 अगस्त 1947 की शाम इंडिया गेट के पास करीब 5 लाख लोग मौजूद थे. यह अपने आप में अनोखा अवसर था. इतनी ज्यादा भीड़ लोगों ने शायद कुंभ मेले को छोड़कर ही देखी थी.

अब बात करते हैं 13 सितंबर 1947 की. ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो इस तारीख को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विभाजन के तहत 40 लाख हिंदू-मुसलमानों के पलायन का सुझाव दिया था. वहीं, विभाजन की मार्मिक घटनाओं से आहत सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू को 2 सितंबर 1947 को चिट्ठी लिखी थी.

सरदार पटेल ने चिट्ठी में लिखा था, ”सुबह से शाम तक मेरा पूरा समय पश्चिम पाकिस्तान से आने वाले हिंदू और सिखों के दुख और अत्याचारों की कहानियों में बीत जाता है.” कहीं ना कहीं पटेल के मन में आजादी के बाद जारी हिंसा को लेकर टीस थी. आजादी के बाद नेहरू के साथ ही पटेल का किरदार काफी अहम हो गया था.

दरअसल, 1947 को भारत की आजादी के साथ कई समस्याएं भी विरासत में मिली थी. एक तरफ रियासतों के विलय की समस्या थी तो दूसरी तरफ हिंसा पर जल्द लगाम लगाने की चुनौती. विभाजन के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल लगातार चुनौतियों का सामना कर रहा था. विस्थापन, राहत और पुनर्वास को लेकर कई बैठकें हुई.

जम्मू-कश्मीर नाउ वेबसाइट के मुताबिक केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठकों में निर्णय पर देरी हो रही थी. वहीं, पाकिस्तान से आने वाले गैर-मुसलमानों को नतीजा भुगतना पड़ रहा था. शुरुआती मंत्रिमंडल की बैठक में स्वीकार किया गया था कि पाकिस्तान की सरकार हिंदुओं को रहने नहीं देगी. उनका एकमात्र मकसद संपत्ति हड़पना था.

इतिहासकारों का मानना है कि पाकिस्तान की सरकार को गैर-मुस्लिमों के पलायन से नुकसान नहीं हुआ था. उनको तो हिंदुओं की करोड़ों की संपत्ति बैठे-बिठाए मिल गई थी. इस संपत्ति में घर, जमीन, कल-कारखाने से लेकर सोने-चांदी के जेवरात भी शामिल थे. इस कारण पाकिस्तान से अल्पसंख्यकों को भगाया जा रहा था.

17 सितंबर 1947 को मंत्रिमंडल की बैठक में जोर दिया गया कि पाकिस्तान में हिंदुओं को रहने नहीं दिया जाएगा. पाकिस्तान सरकार और बहुसंख्यक समुदाय की नीति स्पष्ट थी. समाधान खोजने में देरी हो रही थी. वहीं, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की घटनाओं के साथ लूटपाट भी बढ़ती जा रही थी.

18 सितंबर 1947 की मंत्रिमंडल की बैठक में कहा गया कि जो मुसलमान पाकिस्तान गए हैं, उनके घरों को पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं को नहीं दिया जाएगा. दूसरी तरफ पाकिस्तान की स्थिति एकदम उलट थी. पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के घरों को जबरन खाली कराकर उस पर कब्जा भी जमाया जा रहा था.

भारत की तरफ से तमाम प्रयास किए जा रहे थे कि स्थिति काबू में आए. शायद, सब कुछ वक्त के आसरे टिका था. ऐतिहासिक दस्तावेजों और इतिहास की किताबों में जिक्र है कि करीब 1.25 करोड़ लोगों को घर-बार छोड़कर अपने-अपने देश को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा था. 5 से 10 लाख लोग हिंसा में मारे गए थे.

बीबीसी के मुताबिक, “हजारों महिलाओं को अगवा कर लिया गया. इतिहास में ऐसी त्रासदी बहुत कम मिलती है. ऐसा कत्लेआम जिसमें बंटवारे की रेखा अपने साथ गुस्सा, बेबसी और क्रूरता का सैलाब लेकर आई. यह रेखा अपने पीछे ऐसे ज़ख्म छोड़ गई, जिन्हें आज भी दोनों देश (भारत और पाकिस्तान) पूरी तरह भर नहीं पाए हैं.”

एबीएम/एएस