रांची, 29 जून . झारखंड के साहिबगंज जिले में भोगनाडीह एक छोटा सा गांव है. हर साल की तरह इस बार भी 30 जून को इस गांव में पंचकठिया नामक जगह पर बरगद के विशाल पेड़ के नीचे हजारों लोग इकट्ठा होंगे. बरगद का यह ऐतिहासिक पेड़ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली जनक्रांति ‘संथाल हूल’ (संथाल विद्रोह) की याद दिलाता है.
यही वो जगह है, जहां 169 साल पहले 30 जून 1855 को हजारों आदिवासियों ने विद्रोह का बिगुल फूंका था. इसी के साथ ब्रिटिश शासन की नींव हिल गई थी. तभी से यह तारीख ‘हूल दिवस’ के रूप में मनाई जाती है.
भारतीय इतिहास की ज्यादातर पुस्तकों में आजादी की पहली लड़ाई के तौर पर 1857 के संग्राम का जिक्र किया गया है, लेकिन शोधकर्ताओं और जनजातीय इतिहास के विद्वानों के एक बड़े समूह का कहना है कि 30 जून 1855 को झारखंड के भोगनाडीह से शुरू हुआ ‘हूल’ ही देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था.
संथाल आदिवासियों और स्थानीय लोगों के इस विद्रोह के नायक सिदो-कान्हू (सिद्धू कान्हू) थे, जिन्हें हुकूमत ने मौत के घाट उतार दिया था. इनके दो अन्य भाइयों चांद-भैरव और दो बहनों फूलो-झानो ने भी इस क्रांति के दौरान शहादत दे दी थी. जनजातीय इतिहास पर शोध करने वालों के मुताबिक एक साल तक चली आजादी की इस लड़ाई में दस हजार से ज्यादा संथाल आदिवासी और स्थानीय लोग शहीद हुए थे.
रांची स्थित झारखंड सरकार के रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान के निदेशक आईएएस रणेंद्र कहते हैं कि कार्ल मार्क्स ने अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री में इस जन युद्ध का उल्लेख किया है. इसके पहले लंदन से प्रकाशित अंग्रेजी अखबारों ने भी संथाल हूल पर लंबी रिपोर्ट छापी थीं.
अखबारों में इस आंदोलन की तस्वीरें चित्रकारों से बनवाकर प्रकाशित की गई थीं. इन्हीं रिपोर्ट्स से कार्ल मार्क्स जैसे राजनीतिक दार्शनिकों को आदिवासियों के अदम्य संघर्ष की जानकारी हुई थी. संथाल नायक सिदो कान्हू, चांद, भैरव और फूलो और झानो के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ झारखंड के राजमहल का पूरा जनपद उठ खड़ा हुआ था.
इनका युद्ध कौशल ऐसा था कि बंदूकों और आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से सजी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को उन्होंने आदिम हथियारों और संगठित साथियों के बल पर दो-दो युद्धों में बुरी तरह पराजित किया था. 16 जुलाई 1855 को पीरपैंती के युद्ध में मेजर बरोज या बेरों की सेना इन जननायकों से हारी. दोबारा 21 जुलाई 1855 को वीरभूम के युद्ध में लेफ्टिनेंट टोल मेइन की बड़ी सेना को हार का सामना करना पड़ा था.
सिदो-कान्हू पर भारत सरकार ने वर्ष 2002 में डाक टिकट जारी किया था, लेकिन आज तक इन नायकों को इतिहास की किताबों में उचित जगह नहीं मिली. झारखंड इनसाइक्लोपीडिया के लेखक सुधीर पाल कहते हैं कि करीब साल भर तक चले जनजातीय संघर्ष की भारतीय इतिहास ने अनदेखी की है, जबकि ऐसे तमाम दस्तावेज और सबूत हैं कि 167 साल पुरानी इस लड़ाई की बदौलत लगभग एक साल तक राजमहल की पहाड़ियों और आस-पास के बड़े इलाकों में ब्रिटिश हुकूमत खत्म हो गयी थी.
इस जनक्रांति के नायक सिदो-कान्हू थे, जो मौजूदा झारखंड के साहिबगंज जिला अंतर्गत बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव निवासी चुन्नी मुर्मू की संतान थे. उन्होंने अंग्रेजों और जमींदारों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ 30 जून 1855 को भोगनाडीह में विशाल जनसभा बुलाई थी. इसमें करीब 20 हजार संथाल आदिवासी इकट्ठा हुए थे.
झारखंड के जनजातीय इतिहास पर शोध करके कई पुस्तकें लिखने वाले अश्विनी कुमार पंकज ने एक लेख में लिखा है, ”हूल के पहले और उसके बाद भी हमें भारतीय इतिहास में ऐसी किसी जनक्रांति का विवरण नहीं मिलता, जो पूरी तैयारी, जन-घोषणा और शासक वर्ग को लिखित तौर पर सूचित कर डंके की चोट पर की गई हो.”
बीते दशकों में संथाल हूल पर देश और दुनियाभर में जितने भी अध्ययन-लेखन हुए, उनमें यह रेखांकित किया जा चुका है कि हूल ही भारतीय क्रांति का पहला गौरवशाली पन्ना है. पंकज का कहना है कि संथाल हूल मात्र ‘महाजनों और सामंती शोषण’ के खिलाफ हुआ स्वत: स्फूर्त आंदोलन नहीं था.
उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, ब्रिटिश शासन के खिलाफ यह एक सुनियोजित युद्ध था. इसकी तैयारियां भोगनाडीह गांव के सिदो मुर्मू अपने भाइयों कान्हू, चांद व भैरव, इलाके के प्रमुख संथाल बुजुर्गों, सरदारों और पहाड़िया, अहीर, लोहार आदि अन्य स्थानीय कारीगर एवं खेतिहर समुदायों के साथ एकजुट होकर की थी. जब हूल की सारी तैयारियां पूरी हो गईं, तो सैन्य दल, छापामार टुकड़ियां, सैन्य भर्ती-प्रशिक्षण दल, गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाव दल, रसद दल, प्रचार दल, मदद दल आदि गठित किए गए.
तब 30 जून को विशाल सभा बुलाकर अंग्रेजों को देश छोड़ने का समन जारी कर दिया गया. संथालों की ओर से अंग्रेजी हुकूमत के नाम समन ‘ठाकुर का परवाना’ नाम से जारी किया गया था. इसमें ऐलान किया गया था कि राजस्व वसूलने का अधिकार सिर्फ संथालों को है.
इसमें संथालों का राज पुनर्स्थापित करने की घोषणा के साथ अंग्रेजों को क्षेत्र खाली करके जाने का आदेश जारी किया गया था. ब्रिटिश शासक इसे मानने को तैयार नहीं थे. लिहाजा जुलाई का पहला सप्ताह बीतते ही संथाल और स्थानीय जनता ने ‘हूल’ (क्रांति) छेड़ दिया.
1856 तक सघन रूप से चले इस जन युद्ध को दबाने में कई ब्रिटिश टुकड़ियां लगीं, पर हूल के लड़ाके अंग्रेजी राज के विरुद्ध 1860-65 तक रुक-रुककर लगातार लड़ते रहे. इस ऐतिहासिक हूल में 52 गांवों के 50 हजार से ज्यादा लोग सीधे तौर पर शामिल हुए थे.
दस्तावेजों के मुताबिक, संथाल विद्रोहियों ने अंबर परगना के राजभवन पर कब्जा कर लिया था. एक यूरोपियन सेना नायक और कुछ अफसरों सहित 25 सिपाही मारे गये थे. 1856 तक चले इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेजी सेना को भयंकर लड़ाई लड़नी पड़ी. बरहेट में हुई लड़ाई में चांद-भैरव शहीद हो गए थे. कुछ गद्दारों की वजह से कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ ही दिनों बाद सिदो भी पकड़े गये. सिदो को पचकठिया में बरगद के पेड़ पर और उनके भाई कान्हू को भोगनाडीह गांव में ही फांसी पर लटका दिया गया था.
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एसएनसी/