देश की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर और आयरन लेडी, जो जीवन के अंत तक बाल विवाह और सामाजिक कुरीतियों से लड़ती रही

नई दिल्ली, 24 सितंबर . आज 21 सदी का दौर है और औरतें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं. वह चांद पर भी कदम रख चुकी हैं. दुनिया के हर देश में महिलाओं को उनके हिस्से का सम्मान मिल रहा है. भारत तो वैसे भी हमेशा इस सिद्धांत पर काम करता रहा है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः. यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः..” ऐसे में दौर था 19 वीं सदी का जब औरतें दबी-कुचली थी, उनके पास बोलने तक का अधिकार नहीं था. तब एक बेबाक और दृढ़ संकल्पित महिला ने जो उस दौर में किया उसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता है.

उस महिला का नाम था रुक्माबाई राउत. तब समाज बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं का गुलाम था और रुक्माबाई राउत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. 11 वर्ष की उम्र में रुक्माबाई की शादी हो गई. लेकिन, उन्होंने अपने संकल्प के पंखों को परवान चढ़ाना शुरू किया और अपने पति दादाजी भिकाजी के ‘वैवाहिक अधिकार’ के दावे के खिलाफ कोर्ट तक पहुंच गईं. इसी केस को आधार बनाकर 1891 में ‘सहमति की आयु अधिनियम’ बना.

तब भारतीय समाज औरतों के प्रति दकियानूसी ख्यालों से अटा पड़ा था. ऐसे समय में वह आजाद ख्याल लड़की मेडिसिन की पढ़ाई करने लंदन चली गई. उस दौर में तो औरतें घर की दहलीज तक नहीं लांघ पाती थीं. खैर रुक्माबाई राउत ने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की और भारत लौट आईं. 1894 में जब उन्होंने एक पेशेवर डॉक्टर के तौर पर भारत में प्रैक्टिस शुरू की तो वह भारत की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर बन गयी.

22 नवंबर 1864 को मुंबई में पैदा हुई रुक्माबाई राउत की मां जयंतीबाई की शादी भी 14 वर्ष की उम्र में हो गयी थी और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने रुक्माबाई को जन्म दिया. 17 वर्ष की उम्र में जयंतीबाई विधवा हो गईं. इसके बाद उन्होंने डॉ. सखाराम अर्जुन से दूसरी शादी की जो मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में बॉटनी के प्रोफेसर के साथ समाज सुधारक व शिक्षा के समर्थक भी थे.

रुक्माबाई राउत की शादी भले कम उम्र में हो गई हो लेकिन तब समय के रिवाज के अनुसार उनको कुछ साल अपनी मां के साथ ही रहना था. ऐसे में उनके सौतेले पिता डॉ. सखाराम अर्जुन ने उनके पढ़ाई जारी रखने को कहा. वह पढ़ लिखकर समझदार हुई तो उन्हें समझ आ गया कि उनके पति का चरित्र संदेहास्पद है, वह शिक्षा को भी अहमियत नहीं देता है. इसके बाद रुक्माबाई ने फैसला लिया कि वह ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन नहीं गुजार सकती हैं. इधर दादाजी भिकाजी रुक्माबाई पर दबाव बना रहे थे कि वह उसके साथ आकर रहे. भिकाजी ने रुक्माबाई के खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में ‘एक पति का अपनी पत्नी के ऊपर वैवाहिक अधिकार’ का हवाला देते हुए अर्जी लगा दी. कोर्ट ने रुक्माबाई के खिलाफ फैसला देते हुए विकल्प दिया कि वह अपने पति के साथ रहे या फिर जेल जाने को तैयार रहे. रुक्माबाई जेल जाने को तैयार हो गई. हालांकि बाद में अदालत के बाहर इस मामले को समझौते के तहत निपटाया गया.

वह भारत में डॉक्टर बनकर आईं तो यहां उन्होंने सूरत में चीफ मेडिकल ऑफिसर का पदभार संभाला. वह एक चिकित्सक होने के साथ ही समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ लड़ती रहीं. वह आजीवन कुंवारी रही और 1955 में 91 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई. वह भारत की पहली अभ्यास करने वाली महिला डॉक्टर होने के सम्मान से नवाजी जा चुकी थी. इसके पहले आनंदी गोपाल जोशी डॉक्टर के रूप में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला थी लेकिन, उन्होंने कभी प्रैक्टिस नहीं किया.

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