वलसाड, 12 अप्रैल . गुजरात के वलसाड में शनिवार को एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने समाज, धर्म और संस्कृति के महत्व पर विस्तृत विचार व्यक्त किए. उन्होंने कहा कि हमारा समाज प्राचीन काल से चला आ रहा है और इसमें संतों से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी के हृदय में धर्म का भाव विद्यमान है. यह धर्म का भाव ही समाज को एकजुट रखता है और जीवन की हर गतिविधि को संचालित करता है.
भागवत ने कहा कि धर्म केवल कुछ लोगों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समस्त विश्व के लिए एक ही है, चाहे कोई धर्मी हो, अधर्मी हो या विधर्मी हो. यह वह नियम है, जिसके आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति हुई, जिसके द्वारा यह चल रही है और जिसके तहत इसका अंत भी होगा.
उन्होंने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति सत्य से हुई है और हमारे ऋषि-मुनियों ने सबसे पहले इस सत्य को जाना. यही कारण है कि दुनिया भले ही अलग-अलग दिखती हो, लेकिन मूल रूप से वह एक ही है. इस एकता के दर्शन को अपनाने की आवश्यकता है. भागवत ने कहा कि विभिन्न पूजा पद्धतियां और श्रद्धा के तरीके भले ही अलग हों, लेकिन इनका लक्ष्य एक ही है. कोई व्यक्ति किसी भी भगवान की पूजा करे, उसकी श्रद्धा का आधार वही एक सत्य है. इसलिए मतांतरण की कोई आवश्यकता नहीं है. उन्होंने संत गुलाबराव महाराज का उदाहरण देते हुए बताया कि जब उनसे पूछा गया कि यदि सभी धर्म समान हैं तो ईसाई या मुसलमान बनने से क्या फर्क पड़ता है, तो उन्होंने जवाब दिया कि यदि सभी धर्म समान हैं तो फिर हिंदू ही क्यों न बने रहें.
भागवत ने मतांतरण के पीछे के कारणों पर कहा कि मतांतरण का उद्देश्य अक्सर अपनी सत्ता, प्रभाव और विस्तार को बढ़ाना होता है. यह मनोवृत्ति तब उत्पन्न होती है, जब लोग भौतिक सत्ता की चाह में आत्मिक मूल्यों को भूल जाते हैं. उनका कहना था कि हर पूजा पद्धति के पीछे अध्यात्म होता है और यदि इस अध्यात्म को ध्यान में रखकर चला जाए तो मतांतरण की कोई जरूरत नहीं पड़ती. अध्यात्म पर चलने वाले लोग यह जानते हैं कि सृष्टि में विविधता है, लेकिन अंततः सब कुछ एक ही सत्य की ओर जाता है. इसके विपरीत, जो लोग भौतिक प्रभाव की चाह रखते हैं, वे दूसरों को बदलने का प्रयास करते हैं. यह बदलाव अक्सर लालच, जबरदस्ती या मजबूरी का फायदा उठाकर किया जाता है, जो एक प्रकार का अत्याचार है.
उन्होंने समाज को सावधान रहने की सलाह दी और कहा कि हमें ऐसी शक्तियों से बचना होगा जो धर्म से विमुख करने का प्रयास करती हैं. इसके लिए उन्होंने धर्म के प्रति दृढ़ता और आचरण की शुद्धता पर बल दिया. भागवत ने कहा कि धर्मानुसार चलने से न केवल व्यक्तिगत कल्याण होता है, बल्कि समस्त समाज का कल्याण भी सुनिश्चित होता है. उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए बताया कि उस समय भले ही मतांतरण की बात न थी, लेकिन दुर्योधन ने लालच में आकर जो किया, वह अधर्म था. इसलिए हमें अपने आचरण को धर्म के अनुरूप रखना होगा, ताकि लोभ, मोह या भय के कारण हम धर्म से भटक न जाएं.
भागवत ने धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए बनाए गए केंद्रों के महत्व को भी रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि प्राचीन काल में संन्यासी गांव-गांव जाकर लोगों को धर्म का उपदेश देते थे और सत्संग के माध्यम से उन्हें धर्म के प्रति जागरूक रखते थे. लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, यह संभव नहीं रहा. इसलिए धर्म के केंद्र स्थापित किए गए, जहां लोग स्वयं आकर धर्म का लाभ प्राप्त कर सकें. इन केंद्रों को उन्होंने मंदिरों की संज्ञा दी और कहा कि मंदिर केवल पूजा-उपासना के स्थान नहीं हैं, बल्कि वे जीवन के चारों पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – की शिक्षा और प्रेरणा के केंद्र भी हैं.
उन्होंने मंदिरों के सामाजिक और आर्थिक महत्व पर भी प्रकाश डाला. मंदिरों के उत्सवों और मेले-यात्राओं के कारण न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ती है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां भी संचालित होती हैं. उन्होंने कुंभ मेले का उदाहरण देते हुए कहा कि यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से अर्थव्यवस्था को भी गति मिलती है. हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म के लिए यह आर्थिक लाभ प्राथमिकता नहीं है, लेकिन आज की दुनिया को समझाने के लिए इस पहलू को सामने लाना पड़ता है. भागवत ने कहा कि कुंभ में लोग कठिनाइयों के बावजूद शामिल होते हैं, क्योंकि उनकी श्रद्धा उन्हें वहां खींच लाती है. यह श्रद्धा ही धर्म की ताकत है.
उन्होंने वर्तमान समय में धर्म की प्रासंगिकता पर भी जोर दिया. उनका कहना था कि आज पूरा विश्व भारत की ओर देख रहा है, क्योंकि लोग मानते हैं कि भारत से ही उन्हें धर्म का मार्ग मिलेगा. इसलिए भारत को अपने धर्म पर दृढ़ रहकर एक आदर्श जीवन प्रस्तुत करना होगा. इसके लिए मंदिरों और धार्मिक केंद्रों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. भागवत ने स्वामी जी के 25 वर्षों के कार्य का उल्लेख करते हुए कहा कि ऐसे केंद्रों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है. संत, समाजसेवी और आम लोग सभी को इस दिशा में प्रयास करना होगा.
उन्होंने यह भी कहा कि सनातन धर्म किसी के अकल्याण की कामना नहीं करता. यह धर्म सभी को सत्य, ज्योति और अमृत की ओर ले जाता है. इसलिए हमें अपने धर्म में दृढ़ रहना होगा, ताकि कोई भी हमें भटका न सके. भागवत ने समाज को एकजुट होकर धर्म के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखने का आह्वान किया.
उन्होंने चेतावनी दी कि यदि धर्म की उपेक्षा की गई तो सामाजिक और पारिवारिक जीवन में अनेक समस्याएं उत्पन्न होंगी. नशाखोरी, शराबखोरी और अन्य सामाजिक बुराइयां बढ़ेंगी. इसलिए धर्म केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि देश और समाज के लिए भी आवश्यक है. भागवत ने कहा कि भारत एक धर्म प्रधान देश है और इसका उत्थान तभी संभव है, जब समाज में धार्मिक आचरण बढ़े. इसके लिए धार्मिक केंद्रों को मजबूत करना होगा.
अंत में, भागवत ने सभी से आह्वान किया कि वे धर्म के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें. यह न केवल व्यक्तिगत कल्याण का मार्ग है, बल्कि राष्ट्र और समस्त मानवता की सेवा का साधन भी है. धर्म के बिना न तो परिवार, न समाज और न ही देश सही दिशा में चल सकता है. इसलिए हमें अपने धर्म को जीवंत रखना होगा और इसके लिए धार्मिक केंद्रों, मंदिरों और उत्सवों को बढ़ावा देना होगा.
उन्होंने यह भी कहा कि धर्म का प्रचार जबरदस्ती या लालच से नहीं, बल्कि स्वयं के आचरण और जीवन से होना चाहिए. सनातन धर्म की यही विशेषता है कि यह किसी को बदलने की बजाय उसे अपने धर्म में दृढ़ करता है. भागवत ने समाज को एकजुट होकर इस दिशा में काम करने का संदेश दिया, ताकि भारत विश्व के लिए धर्म और अध्यात्म का प्रकाश स्तंभ बन सके.
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पीएसएम/एकेजे