New Delhi, 16 सितंबर . भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी पर हमला बोला. मालवीय ने कुरैशी के नेपाल में हालिया घटनाक्रम को ‘जीवंत लोकतंत्र’ बताने वाले बयान को ‘अनैतिक और आश्चर्यजनक’ करार दिया. उन्होंने कुरैशी के कार्यकाल पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह टिप्पणी उनके ‘रिकॉर्ड’ को देखते हुए आश्चर्यजनक नहीं है.
अमित मालवीय ने social media प्लेटफॉर्म एक्स पर शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी का एक वीडियो शेयर किया. उन्होंने कुरैशी के कार्यकाल के दौरान लिए गए चुनाव आयोग के फैसलों पर गंभीर आरोप लगाए.
उन्होंने एक्स पोस्ट में लिखा, “पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने नेपाल में हाल की घटनाओं को ‘अराजकता’ नहीं, बल्कि ‘जीवंत लोकतंत्र का संकेत’ बताया है. लेकिन, उनके रिकॉर्ड को देखते हुए यह लापरवाह टिप्पणी आश्चर्यजनक नहीं है. कुरैशी के कार्यकाल के दौरान ही India के चुनाव आयोग ने इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर इलेक्टोरल सिस्टम्स (आईएफईएस) के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए थे, जो जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से जुड़ा हुआ है. यह एक ‘डीप स्टेट’ संचालक संस्था है और कांग्रेस पार्टी तथा गांधी परिवार का करीबी सहयोगी है.”
मालवीय ने दावा करते हुए कहा, “इससे भी बुरी बात यह है कि एक अलग बातचीत में कुरैशी ने खुद स्वीकार किया कि 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद एक ‘बड़े नेता’ ने उन्हें फोन करके शिकायत की थी, ‘आपने हमारे बोगस वोटर्स को वोट देने नहीं दिया.'”
उन्होंने आगे कहा, “उस समय कुरैशी चुनाव आयुक्तों में से एक थे और Samajwadi Party, जो अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति के लिए कुख्यात है, सत्ता में थी, लेकिन चुनाव हार गई. अगर कुरैशी को यह पता था, तो उन्होंने इन सालों में इस नेता को क्यों बचाया? क्या Samajwadi Party ‘वोट चोरी’ कर रही थी? यह नेता कौन था? यह एक बड़ा सवाल उठाता है, अगर कुरैशी को मतदाता सूची में स्थानांतरित, अनुपस्थित और मृत वोटरों के बारे में पता था, तो उन्होंने कभी विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) का आदेश क्यों नहीं दिया? वे 2006-2010 तक चुनाव आयुक्त और फिर 2010-2012 तक मुख्य चुनाव आयुक्त थे, यह उनका संवैधानिक कर्तव्य था कि वे कार्रवाई करते.”
अमित मालवीय ने पूर्व चुनाव आयुक्तों पर भी सवाल उठाया. उन्होंने कहा, “वास्तव में, न तो उन्होंने और न ही उनके बाद आए लोगों, चाहे अशोक लावासा, ओपी रावत या अन्य, ने 2003 में आखिरी एसआईआर के बाद 23 सालों से अधिक समय तक हमारी समझौताग्रस्त मतदाता सूचियों को साफ करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया? और फिर भी, यही लोग अब मीडिया में वर्तमान एसआईआर के ‘जाने-माने’ आलोचक बन गए हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “यह न भूलें, उस समय मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अकेले Prime Minister द्वारा की जाती थी. आज, विपक्ष के नेता सहित तीन सदस्यीय पैनल यह निर्णय लेता है. पुराने लोग अपने पदों पर पूरी तरह से कांग्रेसी व्यवस्था की बदौलत हैं और यह साफ दिखाई देता है. अब इन कमजोर कार्यकालों को बेनकाब करने का समय आ गया है. जो लोग पहले अपना कर्तव्य निभाने का मौका गंवा चुके हैं, वे अब राष्ट्र को उपदेश नहीं दे सकते. विचारों का संघर्ष स्वागतयोग्य है, लेकिन जवाबदेही उनसे शुरू होनी चाहिए, जिनके पास मौका था और उन्होंने कुछ नहीं किया.”
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एफएम/एबीएम