New Delhi, 6 अगस्त . भ्रष्टाचार के मामलों में किसी Governmentी अधिकारी के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए सक्षम अथॉरिटी से जरूरी मंजूरी लेने के प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका पर Supreme court में सुनवाई पूरी हो गई. Supreme court ने फैसला सुरक्षित रख लिया है.
सीपीआईएल की ओर से Supreme court में दायर याचिका में प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के सेक्शन 17ए(1) को चुनौती दी गई है. जस्टिस बीवी नागरत्ना ने सुनवाई के दौरान कहा कि आप यह नहीं कह सकते कि हर फैसला दागदार होता है. ईमानदार अधिकारियों की भी सुरक्षा होनी चाहिए. आप कह रहे हैं कि बेईमान अधिकारियों की सुरक्षा होगी, लेकिन ईमानदार अधिकारियों का क्या? उन्होंने पूछा कि संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के आधार बताइए. इसके क्या आधार हैं?
Supreme court ने कहा कि इसमें संतुलन बनाना ही होगा. पहला, ईमानदार अधिकारियों को परेशान करने वाली शिकायतों से बचाया जाना चाहिए. दूसरा, बेईमान अधिकारियों को संरक्षण देने की जरूरत नहीं है. तो, संतुलन क्या है? अगर ईमानदार अधिकारियों को तुच्छ मामलों में फंसाया जाएगा, तो वे कोई काम नहीं करेंगे. हमारा यह नजरिया नहीं होना चाहिए कि हर अधिकारी ईमानदार है या हर अधिकारी बेईमान.
केंद्र Government की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) तुषार मेहता ने दलील दी कि कुछ लोग सोचते हैं कि सभी न्यायाधीश, नौकरशाह और नेता भ्रष्ट हैं. Governmentी फैसलों से कोई न कोई असंतुष्ट जरूर होगा. वे सीधे आपके सामने नहीं आएंगे. इसके लिए भाड़े के एनजीओ हैं. यह देखकर हैरानी होगी कि कोई एनजीओ के जरिए First Information Report दर्ज करवा देगा और फाइलें विभागों में घूमती रहेंगी.
याचिकाकर्ता की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि मैंने फैसले की धारा 13 में बदलाव को भी चुनौती दी है, जिसमें कहा गया है कि अगर आपने एक पब्लिक सर्वेंट के रूप में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके दूसरे व्यक्ति को लाभ पहुंचाया है तो इसमें Government की पूर्व मंजूरी का यह प्रावधान भ्रष्टाचार के अपराधों की जांच को प्रभावी रूप से कमजोर कर देगा. उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार की जांच के लिए अधिकारी उच्च स्तर का होना चाहिए, सीबीआई जांच के लिए, जो केंद्र Government और बैंक के सभी अधिकारियों के लिए है.
इस पर Supreme court ने कहा कि सीबीआई एक विशेषज्ञ एजेंसी है, जिसके पास यह तय करने की विशेषज्ञता है कि यह एक ईमानदार निर्णय था या बेईमानी से लिया गया निर्णय, जिसकी जांच जरूरी है. अदालत ने यह व्यवस्था दी है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ First Information Report दर्ज होने के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने प्रशांत भूषण से पूछा कि क्या आपको जमीनी हकीकत पता है?
प्रशांत भूषण ने कहा कि 40 प्रतिशत मामलों में Government ने मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है. सीबीआई के लिए तो यह प्रतिशत और भी ज्यादा है. राज्यों के लिए तो यह और भी अधिक है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस फैसले के 19 साल बीत जाने के बावजूद Government ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है. इसका समाधान एजेंसियों को स्वतंत्र करना है. कार्यपालिका, Political Government ही इन एजेंसियों का दुरुपयोग करती है.
जस्टिस नागरत्ना ने पूछा कि कितनी शिकायतें आई हैं? एएसजी मेहता ने कहा कि मेरे पास सिर्फ सीबीआई के आंकड़े हैं, जिसमें 60 प्रतिशत मामलों में मुकदमा चलाने की मंजूरी मिली और 40 प्रतिशत मामलों में नहीं दी गई है.
प्रशांत भूषण ने कहा कि एक संभावित समाधान यह हो सकता है कि प्रारंभिक जांच के परिणाम संबंधित अदालत में प्रस्तुत किए जाएं और फिर अदालत तय करे कि क्या First Information Report की आवश्यकता है. दूसरा समाधान यह हो सकता है कि प्रारंभिक जांच रिपोर्ट लोकपाल के समक्ष प्रस्तुत की जाए और वह फैसला ले कि First Information Report दर्ज की जा सकती है या नहीं.
कोर्ट ने तुषार मेहता से पूछा कि मान लीजिए कि धारा 17ए वैध है. फिर Government किस आधार पर यह तय करती है कि उसके खिलाफ कार्रवाई करने लायक कोई तथ्य है या नहीं? इस पर एसएसजी मेहता ने कहा कि अथॉरिटी इस बात की जांच करेगी कि क्या कोई निर्णय लिया गया था, क्या यह कर्तव्य निर्वहन में लिया गया था और क्या यह प्रथम दृष्टया अपराध दर्शाता है. यह बहुत ही बुनियादी, मौलिक प्रश्न है कि क्या इसकी जांच-पड़ताल की जरूरत है.
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डीकेपी/