रांची, 4 अगस्त . गुरुजी नहीं रहे, गुरुजी यानी शिबू सोरेन. उनके अवसान के साथ एक इतिहास थम गया. झारखंडियत की सबसे बड़ी आवाज शांत हो गई.
जब भी आदिवासी चेतना की बात होगी, जब भी जनसंघर्षों का जिक्र होगा, शिबू सोरेन का नाम लिया जाएगा. सम्मान के साथ. गर्व के साथ. वे सिर्फ एक नेता नहीं थे. एक विचार थे. एक आंदोलन थे. उन्होंने दुःख को हथियार बनाया, संघर्ष को धर्म बनाया और सियासत को गरीब-गुरबों की आवाज.
11 अप्रैल 1944, नेमरा गांव, हजारीबाग (अब रामगढ़), यहीं से शुरू हुई उनकी कहानी. सिर्फ 12 साल के थे. तभी पिता की हत्या हो गई. सूदखोर महाजनों ने मार डाला. यह जख्म जीवन भर बना रहा. बालक शिबू ने संकल्प लिया. बदला लेंगे, लेकिन सिर्फ पिता की हत्या का नहीं. पूरे आदिवासी समाज की पीड़ा का. किशोर उम्र में ही लड़ाई शुरू की. कानूनी लड़ाई, सामाजिक लड़ाई, राजनीतिक लड़ाई, महाजनों के खिलाफ, सूदखोरों के खिलाफ और शोषकों के खिलाफ. वह गांव-गांव घूमे और लोगों को जोड़ा. आदिवासियों को संगठित किया. उन्होंने खेत-खलिहान से विद्रोह शुरू किया और जंगल-पहाड़ों तक विस्तार किया.
उन्होंने ‘धान काटो आंदोलन’ चलाया. महिलाएं खेत में जातीं और पुरुष तीर-धनुष लेकर पहरा देते. यह सिर्फ खेती नहीं थी, यह इंकलाब था. उनके पीछे पुलिस पड़ी और मामले दर्ज हुए. वह जेल गए, जंगलों में भी छिपे, उफनती नदियों में कूद पड़े और यहां तक कि निर्वास काटा. उन्होंने ‘सोनोत संताल’ संगठन बनाया और आदिवासी चेतना को दिशा दी. एक दिन लोगों ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ का नाम दिया, मतलब देश का नेता.
इसके बाद 4 फरवरी 1972 को धनबाद की बड़ी सभा से एक नई उम्मीद उपजी, जिसका नाम था ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा.’ शिबू सोरेन इसके महासचिव बने. विनोद बिहारी महतो अध्यक्ष थे. कॉमरेड एके राय भी साथ थे. जल्दी ही जेएमएम जनआंदोलन बन दक्षिण बिहार से लेकर बंगाल-ओडिशा तक लहर फैल गई. इस जनआंदोलन से लोग जुड़ते गए और मुकाम बनता चला गया. उन्होंने कई बार जेलयात्राएं की, लेकिन जेलों से कभी डरे नहीं. गुरुजी जुल्मों के आगे झुके नहीं. उनकी आवाज गूंजती थी और कारवां खड़ा हो जाता था. पिछले 50 सालों में झारखंड ने ऐसा कोई दूसरा लीडर नहीं देखा.
गुरुजी पहली बार 1980 में दुमका से संसद पहुंचे. इसके बाद 1991 में जेएमएम के केंद्रीय अध्यक्ष बने. अब वो सिर्फ नेता नहीं, आंदोलन का चेहरा थे. संथाल में गुरुजी की जगह उनकी तस्वीर भी घूम जाती तो लोग दीवाने हो जाते. उम्मीदवार उनके नाम से चुनाव जीत जाते. वर्ष 2000 में झारखंड अलग राज्य बना और शिबू सोरेन का सपना साकार हुआ. वह 2005, 2008 और 2009 में तीन बार Chief Minister बने. उन्होंने दो बार केंद्रीय मंत्री की जिम्मेदारी भी संभाली. उन्हें सत्ता मिली, लेकिन वह संघर्ष नहीं भूले थे.
उनका जीवन सादगी और संघर्ष की मिसाल है. उनके पांव हमेशा मिट्टी में थे. जिस जगह रहते, खेती-बाड़ी जरूर करते. सत्ता के गलियारों में गुमराह होने की भी कुछ कहानियां हैं.
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एसएनसी/एबीएम