स्मृति शेष : अरे गुरु, वाह कांठे महाराज बोलिए, तबले की थाप ने बनाया विशेष…

New Delhi, 31 जुलाई . भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं, जो समय की सीमाओं को लांघकर अमर हो जाते हैं. पंडित कांठे महाराज ऐसा ही एक नाम हैं, जिन्होंने तबले को न केवल एक वाद्य यंत्र, बल्कि भावनाओं और लय की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया.

बनारस घराने के इस महान तबला वादक ने अपने सात दशकों के करियर में संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और दुनिया भर में भारतीय शास्त्रीय संगीत की धमक बिखेरी.

कांठे महाराज का जन्म 1880 में वाराणसी के कबीर चौराहा मोहल्ले में एक संगीत को समर्पित परिवार में हुआ. उनके पिता, पंडित दिलीप मिश्र, स्वयं एक जाने-माने तबला वादक थे, जिनसे कांठे महाराज को संगीत की प्रारंभिक प्रेरणा मिली.

सात-आठ वर्ष की उम्र से ही उन्होंने पंडित बलदेव सहाय से तबला वादन की शिक्षा शुरू की, जो बनारस घराने की परंपरा में उनके गुरु और निकट संबंधी थे. लगभग 23 वर्षों तक कठिन साधना के बाद कांठे महाराज ने तबले पर ऐसी महारत हासिल की कि वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक अनमोल रत्न बन गए.

कांठे महाराज की सबसे बड़ी विशेषता थी, उनकी अनूठी शैली, जिसमें बनारसीपन का जादू स्पष्ट झलकता था. उन्होंने तबले को केवल संगत का साधन नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र वाद्य यंत्र के रूप में स्थापित किया. वे पहले संगीतज्ञ थे, जिन्होंने तबला वादन के माध्यम से स्तुति प्रस्तुत की, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था.

उनकी उंगलियों की थाप में लय और भाव का ऐसा समन्वय था कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते थे. लगभग 70 वर्षों तक उन्होंने देश-विदेश के विख्यात गायकों और नर्तकों के साथ संगत की, जिसमें उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, पंडित रवि शंकर और बिरजू महाराज जैसे दिग्गज शामिल थे.

1954 में कांठे महाराज ने ढाई घंटे तक लगातार तबला वादन कर एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया, जिसने उनकी असाधारण प्रतिभा को वैश्विक मंच पर उजागर किया. उनकी बनारसी शैली में जटिल लयकारी और भावपूर्ण प्रस्तुति का मिश्रण था, उनकी इस अनूठी कला ने उन्हें समकालीन तबला वादकों से अलग किया. 1961 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो उनकी कला के प्रति समर्पण का सम्मान था.

कांठे महाराज का प्रभाव उनके भतीजे, विख्यात तबला वादक पंडित किशन महाराज में भी दिखता है. किशन महाराज ने अपने चाचा की विरासत को आगे बढ़ाया और बनारस घराने को नई पहचान दी. 1 अगस्त, 1970 को 90 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी थाप आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में गूंजती है.

कांठे महाराज की कहानी केवल एक तबला वादक की नहीं, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की जीवंत परंपरा की है. उनकी विरासत बनारस घराने के हर ताल में जीवित है.

एकेएस/एबीएम