New Delhi, 4 सितंबर . हिन्दी साहित्य में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से न केवल हंसी बिखेरी हैं, बल्कि समाज की नब्ज को भी टटोला है. शरद जोशी ऐसे ही एक अनमोल रत्न हैं, जिन्होंने व्यंग्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया. वे ऐसे व्यंग्यकार रहे, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज के चेहरे पर हंसी की रेखाएं खींचीं, मगर उन रेखाओं में छिपी थी गहरी चोट और आत्ममंथन की पुकार.
Madhya Pradesh के उज्जैन में 21 मई 1931 को जन्मे शरद जोशी ने हिन्दी साहित्य को एक ऐसी शैली दी, जो हास्य और व्यंग्य के बीच गहरे सामाजिक सवाल उठाती थी.
शरद जोशी का लेखन केवल हंसी का ठहाका नहीं, बल्कि वह दर्पण था, जिसमें समाज अपनी कमियां देख सकता था. उनकी रचनाएं ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘राग Bhopal ी’, और ‘परिक्रमा’ पढ़ते हुए पाठक हंसता है, ठिठकता है, और फिर सोच में डूब जाता है. उनकी लेखनी में वह जादू था, जो आम जीवन की साधारण घटनाओं को असाधारण बना देता था. चाहे वह नौकरशाही की जटिलता हो, सामाजिक रूढ़ियों की बेतुकी बातें हों, या फिर आम आदमी की रोजमर्रा की जद्दोजहद, शरद जोशी की नजर हर उस कोने तक पहुंचती थी, जहां बदलाव की जरूरत थी.
उनका व्यंग्य कभी तीखा, कभी कोमल, मगर हमेशा मारक था. ‘प्रतिदिन’ जैसे उनके निबंधों में सामाजिक विडंबनाओं को इस तरह उकेरा गया कि पाठक हंसते-हंसते अपनी ही कमियों पर सवाल उठाने लगता. उनकी लेखनी से निकले तीरों ने व्यवस्था को झकझोरा, सत्ता को आईना दिखाया और आम आदमी को मुस्कुराने के साथ सोचने पर भी मजबूर किया.
शरद जोशी की खासियत थी कि वे समाज को आलोचना के कटघरे में खड़ा करते थे, मगर बिना उसे अपमानित किए. उनकी लेखनी में एक गजब का संतुलन था, जिसमें हास्य का रंग, व्यंग्य का ताप, और संवेदना का स्पर्श था. शरद जोशी का लेखन एक ऐसा आलम है, जहां हास्य और व्यंग्य मिलकर साहित्य की अनमोल कृति रचते हैं.
शरद जोशी केवल लेखक ही नहीं, बल्कि एक कुशल नाटककार, पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे. उनकी रचनाएं ‘नया दौर’ और ‘उड़ान’ जैसे धारावाहिकों में जीवंत हुईं.
आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए उनके लेखन ने आम आदमी की आवाज को मंच दिया. 5 सितंबर 1991 को दुनिया को अलविदा कहने वाले इस साहित्यकार की विरासत आज भी जीवित है. उनके शब्द आज भी हमें हंसाते हैं, सोचने पर मजबूर करते हैं और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी को याद दिलाते हैं.
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एकेएस/डीकेपी