नई दिल्ली, 27 मार्च . केके बिरला फाउंडेशन द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान, प्रख्यात संस्कृत विद्वान महामहोपाध्याय साधु भद्रेशदास को उनकी महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति ‘स्वामिनारायण सिद्धांत सुधा’ के लिए प्रदान किया जाएगा. माननीय न्यायमूर्ति अर्जन कुमार सीकरी (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई सरस्वती सम्मान की ‘चयन परिषद्’ की बैठक में इसका निर्णय किया गया.
परिषद् के अन्य सदस्य- प्रो. रामदेव शुक्ल, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, डॉ. किरण बुदकुले, डॉ. सी. मृणालिनी, प्रो. कालीदास मिश्र, प्रो. ललित मंगोत्रा, श्री मालन नारायणन, प्रो. मिलिन्द गोविन्दराव जोशी, डॉ. मानबेन्द्र मुखोपाध्याय, श्री विजय वर्मा, श्री प्रियव्रत भरतिया एवं निदेशक, के. के. बिरला फाउंडेशन, डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण हैं.
साधु भद्रेशदास, जो एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्कृत विद्वान और बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामिनारायण संस्था (बी.ए.पी.एस.) के संन्यासी हैं, का जन्म 12 दिसंबर, 1966 को नांदेड़, महाराष्ट्र में हुआ था. भद्रेशदास एमए, पीएचडी, डीलिट् तथा आईआईटी खड़गपुर द्वारा प्रदत्त डॉक्टर ऑफ साइंस (मानद उपाधि) जैसी उत्कृष्ट शैक्षणिक योग्यताओं से सुशोभित हैं.
भारतीय दर्शन में उनकी विद्वता और योगदान महत्वपूर्ण माने जाते हैं. उन्होंने आधुनिक युग में भारत की पारंपरिक वैदिक ज्ञान प्रणाली के संरक्षण एवं संवर्धन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उनकी अनुपम विद्वत्ता के लिए उन्हें ‘महामहोपाध्याय’, ‘भाष्य-रत्नाकर’ जैसी अनेक प्रतिष्ठित उपाधियों से अलंकृत किया गया है.
उन्हें भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद (आई.सी.पी.आर.) द्वारा ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ भी प्रदान किया गया है. इसके अतिरिक्त, थाईलैंड की सिल्पाकोर्न यूनिवर्सिटी ने उन्हें ‘वेदांत मार्तंड पुरस्कार’ से सम्मानित किया है. वर्तमान में वे बी.ए.पी.एस. स्वामिनारायण शोध संस्थान के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं.
सरस्वती सम्मान 2024 से सम्मानित महामहोपाध्याय साधु भद्रेशदास की कृति ‘स्वामिनारायण सिद्धांत सुधा’ (वर्ष 2022 में प्रकाशित), जो प्रस्थानत्रयी पर आधारित है, अक्षर पुरुषोत्तम दर्शन की संपूर्ण दार्शनिक दृष्टि को सरल, तर्कसंगत और गहन रूप से प्रस्तुत करती है. यह ग्रंथ इस तथ्य को रेखांकित करता है कि भारत में दार्शनिक अवधारणाओं की परंपरा केवल इतिहास की बात नहीं है, किंतु आज भी नए दार्शनिक आविष्कारों को जन्म देने वाली जीवंत परंपरा है.
इस ग्रंथ के अध्ययन से संस्कृत भाषा की विश्वजयी सामर्थ्य को समझा जा सकता है. दार्शनिक सिद्धांतों को व्याख्यायित करने में संस्कृत भाषा में जो शक्ति निहित है, उस शक्ति का निदर्शन इस ग्रंथ में विद्यमान है. विद्वान अध्येताओं के अनुसार, इस ग्रंथ की भाषा अत्यंत तर्कपूर्ण होते हुए भी मधुर और सरस है. तत्त्वज्ञान की गहराइयों का स्पर्श करने वाले इस ग्रंथ का गद्य भाग अत्यंत सुबोध एवं सहज है.
सरस्वती सम्मान की शुरुआत केके बिरला फाउंडेशन द्वारा सन् 1991 में की गई थी. यह सम्मान प्रतिवर्ष किसी भारतीय नागरिक की एक ऐसी उत्कृष्ट साहित्यिक कृति को दिया जाता है जो भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित, किसी भी भारतीय भाषा में, सम्मान वर्ष से ठीक पहले 10 वर्ष की अवधि में प्रकाशित हुई हो. इस सम्मान में पंद्रह लाख (15 लाख) रुपए की पुरस्कार राशि के साथ प्रशस्ति-पत्र व प्रतीक चिह्न भेंट किया जाता है.
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केआर/