दिल्ली के ‘साहिब’ : दूध-जलेबी की दुकान ने तय की दिशा, सीएम बनने के बाद भी डीडीए फ्लैट में रहे

New Delhi, 29 जून . आज राजनीति में दिखावा और सत्ता की होड़ आम हो चली है, ऐसे में साहिब सिंह वर्मा जैसे नेता की याद और भी प्रासंगिक हो जाती है. देश की राजधानी दिल्ली की राजनीति में एक ऐसा नाम जो सादगी, संघर्ष, ईमानदारी और सेवा का प्रतीक बन गया. डॉ. साहिब सिंह वर्मा की पुण्यतिथि (30 जून) पर जब हम उनके जीवन को करीब से देखते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि वो सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि एक विचारधारा थे, एक ऐसे जनसेवक, जो कुर्सी से ज्यादा जनता की तकलीफों को तवज्जो देते थे.

प्रवेश वर्मा जो आज स्वयं एक सशक्त राजनीतिक हस्ती हैं, अपने पिता की पहली राजनीतिक मुलाकात को याद करते हुए बताते हैं कि मेरे पिताजी नौकरी के शुरुआती दिनों में जहां रहते थे, उसके पास एक हलवाई की दुकान थी. वहां अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर दूध-जलेबी खाने आते थे. एक दिन दोनों की मुलाकात हुई और वहीं से पिताजी की विचारधारा की दिशा तय हो गई. वे पहले संघ से जुड़े और फिर भाजपा के होकर रह गए.

यह मुलाकात किसी आम परिचय की तरह शुरू हुई, लेकिन यहीं से एक जाट किसान का बेटा देश की राजधानी की राजनीति में अपनी मजबूत पहचान बनाने निकल पड़ा.

हरियाणा के झज्जर जिले के मांडोठी गांव में एक किसान परिवार में जन्मे साहिब सिंह वर्मा का जीवन बेहद साधारण था. पिता मीर सिंह और मां भरपाई देवी के सिखाए मूल्यों के साथ वे बड़े हुए. गांव की मिट्टी में पले-बढ़े साहिब सिंह ने किसान की तकलीफें और आम आदमी की समस्याएं बहुत करीब से देखीं. उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से लाइब्रेरी साइंस में मास्टर्स और फिर इसी विषय में पीएचडी की. इसके बाद दिल्ली में बतौर लाइब्रेरियन नौकरी करते हुए भी पढ़ाई और समाजसेवा दोनों को जारी रखा.

साहिब सिंह वर्मा की राजनीतिक यात्रा की अगर हम बात करें तो वह सबसे पहले, 1977 में दिल्ली नगर निगम के पार्षद बने. यह उनकी राजनीतिक यात्रा की पहली सीढ़ी थी. इसके बाद 1991 में उन्होंने बाहरी दिल्ली से Lok Sabha का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. 1993 में विधानसभा चुनाव जीता और दिल्ली के तत्कालीन Chief Minister मदन लाल खुराना की सरकार में शिक्षा मंत्री बने. दिल्ली की राजनीति में साल 1996 उथल-पुथल का दौर था. जैन हवाला कांड में नाम आने के कारण लालकृष्ण आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया. उनके कहने पर दिल्ली के Chief Minister खुराना ने भी पद छोड़ दिया. अब नया Chief Minister चुनने की चुनौती सामने थी. हालांकि, खुराना साहिब सिंह को सीएम बनाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन विधायक दल की बैठक में विधायकों ने उन्हें अपना नेता चुना और वह दिल्ली के Chief Minister बने.

साहिब सिंह वर्मा का Chief Minister बनना आसान था, लेकिन सीएम बने रहना मुश्किल. सरकार में कई मंत्री उनसे असहमत रहते, कैबिनेट मीटिंग में भी नहीं आते क्योंकि वे खुराना गुट से थे. उन दिनों दिल्ली में बिजली-पानी की भारी किल्लत थी. केंद्र से फंड नहीं मिल रहा था. विरोध स्वरूप उन्होंने सरकारी गाड़ी लेने से इनकार कर दिया और साइकिल पर चलने लगे. उनके पीछे सिक्योरिटी की जीपें चलती थीं.

साहिब सिंह ने सीएम बनने के बाद भी डीडीए फ्लैट में रहना जारी रखा. उनके फ्लैट के नजदीक एक पार्क में टेंट लगाकर सुरक्षा के जवानों की मौजूदगी से कॉलोनीवासी परेशान हो गए. जब लोगों ने शिकायत की, तो उन्होंने बेबाकी से कहा कि मुझे कोई सुरक्षा नहीं चाहिए. इसके कुछ दिन बाद वह श्याम नाथ मार्ग स्थित सरकारी बंगले में शिफ्ट हुए ताकि कॉलोनी के लोगों की समस्या हल हो सके.

दिल्ली के Chief Minister के रूप में अपना दायित्व निभाने के बाद 1999 में वह सांसद बने और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय श्रम मंत्री के रूप में कार्य किया. उनकी छवि एक प्रभावशाली जाट नेता के रूप में बनी रही. इसके बाद 2004 के Lok Sabha चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा, लेकिन उनका सामाजिक जुड़ाव कायम रहा. साल 2007 में 30 जून को एक सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई.

पीएसके/एबीएम