‘भारतेंदु युग’ के लेखक प्रताप नारायण मिश्र ने हिंदी को दी नई पहचान, समाज सुधार और देशभक्ति के बने प्रतीक

New Delhi, 23 सितंबर . ‘निज हाथन सर्वसु खोय चुके कहं लौ दुख पै दुख ही भरिये, हम आरत भारतवासिन पै अब दीनदयाल दया करिये.’ हिंदी साहित्य के रत्नों में शुमार प्रताप नारायण मिश्र की ये पंक्तियां देशभक्ति और सामाजिक चेतना का प्रतीक हैं.

प्रताप नारायण भारतेंदु युग के महत्त्वपूर्ण लेखक, कवि और पत्रकारों में से एक थे, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा दी. इतना ही नहीं, उन्होंने पत्रिका ‘ब्राह्मण’ के माध्यम से समाज सुधार के विचारों को प्रचारित किया.

24 सितंबर 1856 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बैजनाथ बैथर में पैदा हुए प्रताप नारायण ने हिंदी खड़ी बोली को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी रचनाएं सामाजिक जागरूकता, देशभक्ति और नैतिकता के संदेशों से भरी हुई थीं. उनकी लेखनी में जितनी गहराई थी, उतना ही हास्य-व्यंग्य का अनूठा समावेश था, जो पाठकों को गंभीर विषयों पर भी सरलता से विचार करने को प्रेरित करता था.

‘विवादी बढ़े हैं यहां कैसे-कैसे, कलम आते हैं दरमियां कैसे-कैसे. जहां देखिए म्लेच्छ सेना के हाथों, मिटे नामियों के निशां कैसे-कैसे.’ इस पंक्ति में प्रताप नारायण समाज में बढ़ते विवादों और मतभेदों की ओर इशारा करते हैं.

उनकी प्रमुख रचनाओं में प्रेम पुष्प (काव्य संग्रह), नाटक संग्रह और विभिन्न निबंध शामिल हैं. उनके निबंध सामाजिक कुरीतियों, जैसे बाल विवाह और राष्ट्रीय जागरूकता पर केंद्रित थे. उन्होंने जीवनकाल में ‘प्रेम पुष्पांजलि’, ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्तिशतक’, ‘Kanpur महात्म्य’, ‘तृप्यंताम्’, ‘दंगल खंड’, ‘ब्रेडला स्वागत’, ‘तारापात पचीसी’, ‘दीवाने बरहमन’, ‘शोकाश्रु’, ‘बेगारी विलाप’, ‘प्रताप लहरी’ जैसी प्रमुख काव्य-कृतियां लिखीं.

प्रताप नारायण ने खड़ी बोली को साहित्यिक रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उस समय ब्रजभाषा और अवधी जैसी बोलियाँ साहित्य में प्रचलित थीं, लेकिन उन्होंने खड़ी बोली को गद्य और पद्य दोनों में लोकप्रिय बनाया. ‘भारतेंदु युग’ (19वीं सदी का उत्तरार्ध) हिंदी साहित्य का पुनर्जागरण काल था, जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण जैसे साहित्यकारों ने हिंदी को आधुनिक स्वरूप दिया. उन्होंने सामाजिक सुधार, शिक्षा और राष्ट्रीयता के विचारों को अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया.

उनके गद्य-पद्य में जितना देशप्रेम झलकता था, उतनी ही भाषा पर अटूट पकड़ भी उनके लेखों में दिखाई देती थी. ‘चहहु जु सांचौ निज कल्यान तो सब मिलि India संतान. जपो निरंतर एक जबान, हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान.’

प्रतापनारायण मिश्र अपने लेखन में तत्सम, तद्भव, अरबी, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल करते थे. अपने मिलनसार और जीवंत व्यक्तित्व के लिए प्रसिद्ध प्रताप नारायण ने लोगों के दिलों में खास जगह बनाई. हालांकि, कई बीमारियों और स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही ने उनके शरीर को कमजोर किया. उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया और महज 38 साल की आयु में, 6 जुलाई, 1894 को उनका निधन हो गया.

एफएम/एएस