Mumbai , 14 सितंबर . हिंदी साहित्य की दुनिया में कुछ ऐसे लेखक होते हैं जिनकी कलम कविता लिखती है, तो साथ ही मंच के नाटक भी बखूबी गढ़ती है. वे बच्चों के लिए कविताएं रचते हैं, तो बड़ों के लिए तीखे व्यंग्य भी लिखते हैं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ऐसे ही एक लेखक थे. उनकी रचनाओं में केवल शब्द नहीं, बल्कि अनुभव, संवेदना और समाज की धड़कनें बसी होती थीं.
उन्होंने कविता, नाटक, बाल साहित्य, उपन्यास और पत्रकारिता… इन सभी विधाओं में लिखा. वे हिंदी के ऐसे कलाकार थे जिनके अंदर एक साथ कई लेखक बसे थे.
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में हुआ था. एक छोटे कस्बे से आने वाले सर्वेश्वर ने कभी कल्पना नहीं की थी कि वे एक दिन हिंदी साहित्य का बड़ा नाम बनेंगे. उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई बस्ती से की और फिर बनारस आए, जहां क्वींस कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की. इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया. इसी शहर ने उन्हें साहित्य के असली रंगों से परिचित कराया. यहां उनका जुड़ाव साहित्यिक गतिविधियों से बढ़ा और उन्होंने लिखना शुरू किया.
शुरुआती करियर में सर्वेश्वर को एजी ऑफिस में डिस्पैचर की नौकरी मिल गई. नौकरी के दौरान भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता को बनाए रखा. थोड़े समय बाद वे दिल्ली आ गए, जहां वे ऑल इंडिया रेडियो के हिंदी समाचार विभाग में सहायक संपादक बन गए, लेकिन रेडियो की नौकरी के बाद भी उनका मन साहित्य की ओर ही झुका रहा.
साल 1964 में जब मशहूर पत्रकार और साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने ‘दिनमान’ पत्रिका शुरू की, तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उन्होंने विशेष आग्रह करके अपने साथ जोड़ा. यह उनकी साहित्यिक यात्रा में एक बड़ा मोड़ था. दिनमान में उन्होंने ‘चरचे और चरखे’ नाम से स्तंभ लिखा, जो व्यंग्य और सामाजिक टिप्पणी का अनूठा मेल था. यही वह मंच था जिसने उन्हें एक गंभीर पत्रकार के रूप में स्थापित कर दिया.
कविता उनकी आत्मा में बसती थी. उनकी कविताएं नई कविता आंदोलन का हिस्सा बनीं और ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल हुईं. यह पुस्तक हिंदी कविता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ मानी जाती है. सर्वेश्वर की कविताएं प्रेम, पीड़ा, राजनीति और समाज… हर पहलू को छूती थीं. उन्होंने ‘तुम्हारे साथ रहकर…’ जैसी प्रेम कविताएं लिखीं, जो आज भी पढ़ने वालों के मन को छू जाती हैं.
उन्होंने नाटक भी लिखे. उनका नाटक ‘बकरी’ इतना तीखा Political व्यंग्य था कि आपातकाल के समय Government ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. इतना ही नहीं, इस नाटक पर मॉरीशस में भी बैन लगाया गया. इसके अलावा ‘अब गरीबी हटाओ,’ ‘हवालात,’ और ‘लड़ाई’ जैसे नाटकों ने मंच पर नई ऊर्जा भरी.
बच्चों के लिए लिखना उनके लिए एक सामाजिक जिम्मेदारी थी. वे मानते थे कि जिस देश के पास अच्छा बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य सुरक्षित नहीं है. उन्होंने ‘बतूता का जूता’ और ‘महंगू की टाई’ जैसी बाल कविताएं लिखीं, जो आज भी बच्चों की किताबों में शामिल हैं. 1982 में उन्हें बाल पत्रिका ‘पराग’ का संपादक बनाया गया और वे अपने अंतिम समय तक इससे जुड़े रहे.
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उनके कविता संग्रह ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ के लिए 1983 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 23 सितंबर 1983 को सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का निधन हो गया.
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पीके/एएस