![]()
गांधीनगर, 13 नवंबर . Prime Minister Narendra Modi की प्रेरणा से इस वर्ष Gujarat सहित देशभर में आदिजाति समाज के जननायक भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भव्य रूप से मनाई जा रही है. आदिजाति समुदाय के पराक्रम, बलिदान एवं सांस्कृतिक विरासत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए Prime Minister ने 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया था.
इस वर्ष जनजातीय गौरव दिवस का राष्ट्रीय स्तर का उत्सव Prime Minister मोदी की अध्यक्षता में Gujarat में नर्मदा जिले के डेडियापाडा में आयोजित होगा. नर्मदा जिले की यात्रा के दौरान Prime Minister प्रसिद्ध याहामोगी देवमोगरा धाम में माताजी के दर्शन करेंगे.
सतपुड़ा पर्वतमाला में प्राकृतिक सौंदर्य के बीच स्थित यह मनमोहक धाम आदिजाति समाज के लोगों की आस्था का केंद्र है, जिसकी महिमा अनूठी है. सतपुड़ा की पर्वतमाला के बीच स्थित पौराणिक मंदिर देवमोगरा धाम बाहर से नेपाल के पशुपतिनाथ जैसा दिखाई देता है.
नर्मदा जिले की सागबारा तहसील के देवमोगरा में आदिजातियों की कुलदेवी पांडोरी माता (याहमोगी) का मंदिर स्थित है. सतपुड़ा की पर्वतमालाओं में प्रकृति की गोद में बसे इस धाम में स्वयंभू याहा पांडोरी देवमोगरा माता आदि-अनादि काल से स्वयं कणी-कंसरी के रूप में विराजमान हैं. यहां Gujarat, Maharashtra, Madhya Pradesh तथा Rajasthan के आदिजाति समुदाय के लोग याहामोगी पांडोरी की कुलदेवी के रूप में अपार श्रद्धा-आस्था तथा भक्ति के साथ पूजा-अर्चना करते हैं. इस पवित्र हेला दाब की आदि-अनादि काल से बहुत अनूठी महिमा रही है.
हजारों वर्ष पूर्व जब इस प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा था, तब माताजी ने देवमोगरा धाम पर स्वयं वास किया था. भीषण अकाल के कारण अन्न-जल की किल्लत पैदा हुई और पशु-पक्षी तथा मानव दुखी हो गए. ऐसे संकट की घड़ी में इस क्षेत्र के प्रजापालक गोर्या कोठार ने आवश्यक अन्न का वितरण करना शुरू किया, परंतु आगे चलकर गोर्या कोठार के अन्न भंडार भी खाली होने लगे. तब उनकी पालक पुत्री याहा पांडोरी ने कणी-कंसरी का रूप धारण कर अन्न वितरण का कार्य संभाला. तब से आज तक अनाज के भंडार कभी खाली नहीं हुए हैं. आदि-अनादि काल से लेकर आज तक माताजी के अन्न भंडार समग्र मानव जाति के लिए सदैव भरे रहे हैं.
सागबारा तहसील के देवमोगरा गांव में स्थित इस मंदिर में अनेक पीढ़ियों से लाखों भक्त माताजी के चरणों में श्रद्धा एवं भक्ति के साथ अपनी समस्याओं तथा दुखों का निवारण प्राप्त करने के लिए आते हैं. मंदिर के पुजारी द्वारा माताजी का आह्वान किया जाता है और आशीर्वाद देकर हर व्यक्ति के कल्याण की मंगलकामना की जाती है. माताजी के चरणों में जो भी दुखी व्यक्ति रोता हुआ आता है, वह हंसता हुआ वापस लौटता है.
देवमोगरा में जहां राजा पांठा-विनादेव का स्थानक है, वहां हर वर्ष महाशिवरात्रि पर एक भव्य गढ़ यात्रा आयोजित की जाती है. इस यात्रा में परंपरागत वाद्ययंत्रों तथा नृत्य के साथ माताजी को गढ़ में जंगलों-पर्वतों के बीच स्थित प्राकृतिक झरने में स्नान कराया जाता है. इतना ही नहीं माताजी की पूजा करके आगामी वर्ष के लिए खेतीबाड़ी और बरसाती मौसम का (होलको ठोक कर) अनुमान लगाया जाता है. हजारों श्रद्धालु इस अनुमान के अनुसार खेतीबाड़ी का पूर्व आयोजन करते हैं. मेले के दौरान माता के प्रांगण में स्थित काकड़ के पेड़ पर एक ही रात में फूल आ जाते हैं. सुबह भक्त उसके दर्शन करते हैं और मानते हैं कि जिस दिशा में सबसे ज्यादा फूल हों, उस दिशा में वर्ष के दौरान खेतीबाड़ी का काम अच्छा होगा.
प्रतिवर्ष माघ महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तथा महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व से लगातार पांच दिनों तक लगने वाला यह मेला आदिवासी लोक संस्कृति का अनूठा दर्शन कराता है. इस मेले में लाखों भक्त माताजी के दर्शन के लिए जुटते हैं, जो वास्तव में आह्लादक दृश्य होता है. इस मंदिर में बाईं ओर श्यामवर्णी महाकाली माता की मूर्ति के भी लोग दर्शन करते हैं. इस प्रकार एक ही मंदिर में दो माताजी विराजमान हैं.
देवमोगरा धाम : आदिजाति समाज की आस्था, परंपरा तथा संस्कृति का जीवंत प्रतीक
आदिजाति समुदाय हजारों वर्षों से अपनी अनूठी परंपरा का पालन करता है, जिसमें वे संपूर्ण श्रद्धा के साथ नई फसल को बांस की टोकरी में रखते हैं और सब्जी-भाजी, पूजा सामग्री की हिजारी (हिंगारी) बांधकर उसे सिर पर रखकर एवं रंगबिरंगी वस्त्र पहनकर तथा महिलाएं सोने-चांदी के आभूषणों से सजकर गाजे-बाजे के साथ होब यात्रा पर निकलते हैं. आदिवासी लोग सवा महीने का व्रत-उपवास कर याहा पांडोरी देवमोगरा के चरणों में धान-अन्न श्रद्धापूर्वक समर्पित करते हैं और इसके बाद नए धान का सेवन किया जाता है.
इस प्रकार देवमोगरा धाम केवल एक स्थानक ही नहीं है, बल्कि आदिजाति समाज की आस्था, परंपरा एवं संस्कृति का जीवंत प्रतीक है और स्थानीय प्रदेश के घेरिया (महिला पोशाक में पुरुषों की टोली) होली-धुलंडी के त्योहार के दौरान सवा महीने घर से बाहर निकल कर घर-घर घूमते हैं और घेरिया बनते हैं और नौ रस के श्रृंगार के साथ मुक्त मन से नाच-गान करते हैं. धुलंडी से पूर्व के दिन होली चौक में होलिका प्रज्ज्वलित की जाती है और महिलाएं भी परंपरागत वेशभूषा में सजकर वाद्ययंत्रों के साथ नाच-गान करते हुए होली के लोले (लोक गीत) गाकर आनंद-उत्सव मनाती हैं.
–
एसके/एबीएम