New Delhi, 13 जुलाई . लीला चिटनिस का नाम जब सिनेमा के इतिहास में लिया जाता है, तो वह एक किरदार से नहीं, बल्कि एक सोच से जुड़ता है. उन्होंने जब अभिनय की दुनिया में कदम रखा, तब पर्दे पर महिलाएं या तो सजावट के तौर पर पेश की जाती थीं या दुख का प्रतीक होती थीं. लेकिन लीला ने इन दोनों छवियों को तोड़ा—पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और संवेदनशील महिला की छवि को पहली बार हिंदी सिनेमा ने उन्हीं के माध्यम से महसूस किया. समय के साथ खुद को ढालना भी बखूबी सीखा और इसका जिक्र अपनी आत्मकथा ‘चंदेरी दुनियेत’ में किया. रुपहले पर्दे पर निरुपा रॉय या सुलोचना से पहले करुणामयी मां का किरदार इन्होंने ही निभाया. इसलिए तो इन्हें हिंदी सिनेमा की ‘डचेस ऑफ डिप्रेशन’ और पहली ग्रेसफुल मां के भी तमगे से नवाजा गया.
उनके जीवन के उतार-चढ़ाव भी किसी फिल्मी पटकथा जैसे नहीं थे—बल्कि एक गहरे आत्ममंथन और स्वाभिमान से भरी यात्रा थी. उन्होंने सिनेमा को अपनी आवाज दी, और उस आवाज में कभी सिसकियां थीं, कभी विचार, और कभी मूक विद्रोह झलकता था. एक संभ्रांत घर की पढ़ी-लिखी और चार बच्चों की मां का फिल्मी पर्दे पर छाना उस दौर में किसी चमत्कार से कम नहीं था. एक ऐसी अदाकारा जिन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को पहली बार ब्लॉकबस्टर का स्वाद चखाया, जिन्होंने पहली बार लक्स का एड किया और पर्दे पर उस दौर के तीन बड़े कलाकारों—दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद—की मां बनने का दिलेर फैसला लिया.
लीला चिटनिस की उपस्थिति हमेशा कैमरे के फ्रेम से बाहर तक फैलती रही. वह जब किसी दृश्य में होतीं, तब केवल अभिनय नहीं होता—वह उस दृश्य को जीवित कर देती थीं. शायद यही कारण था कि उन्होंने मां की भूमिका को केवल त्याग की नहीं, बल्कि मनुष्य की गरिमा की भूमिका बना दिया. उनका जीवन भी ऐसा ही था—सम्मान से भरा, लेकिन अकेलेपन से गुजरता हुआ. उन्होंने कभी लोकप्रियता के लिए खुद को नहीं बदला, और यही उनकी खूबी भी थी और त्रासदी भी. अंतिम वर्षों में जब वह अमेरिका के एक वृद्धाश्रम में रहीं, तब उनके आसपास कोई कैमरा नहीं था.
चंदेरी दुनियेत में जन्म, परिवार, पति से कॉलेज में पहली मुलाकात सबका जिक्र है. जन्म 9 सितंबर 1909 को धारवाड़ (वर्तमान कर्नाटक) में हुआ था, एक मराठी ब्राह्मण परिवार में. उनके पिता अंग्रेजी के प्राध्यापक थे और इस पारिवारिक माहौल ने उन्हें शिक्षा के प्रति सजग बनाया. शादी 15-16 साल की उम्र में हो गई. डॉक्टर पति के साथ विदेश चली गईं. चार बेटों को जन्म दिया. बाद में पति से डिवोर्स हुआ तो Mumbai आ गईं. ग्रेजुएट लीला फिर एक स्कूल में नौकरी करने लगीं. लेकिन चार बच्चों की जिम्मेदारी थी, गुजर-बसर मुश्किल थी, ऐसे समय में ही मराठी थिएटर किया. उन्होंने अपने नाटकों और फिल्मों के ज़रिये जातिवाद, महिलाओं की स्थिति और सामाजिक दबावों पर सवाल उठाए.
इसके पश्चात फिल्मों में बतौर एक्स्ट्रा उपस्थिति दर्ज कराई. संघर्ष करते हुए अभिनेत्री बनीं. फिर आई वो फिल्में—”कंगन,” “बंधन”, “झूला”—जहां वो अशोक कुमार के साथ एक आधुनिक, आत्मनिर्भर महिला के रूप में सामने आईं. उस समय की फिल्मों में उनका किरदार बोलता था, सोचता था, और लड़ता था. यह एक नई नायिका थी, जो फूलों और साड़ियों से परे जाकर समाज को आईना दिखा रही थी.
1930 के दशक में ग्रैजुएशन बड़ी उपलब्धि थी. 1937 में आई डाकू जैंटलमैन ने इन्हें काफी शोहरत दिलाई. फिल्म के विज्ञापन में बड़े शान से लिखा था: “विशेषता: लीला चिटनिस, बी.ए., महाराष्ट्र से स्क्रीन पर पहली सोसाइटी लेडी ग्रेजुएट.”
लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, और इंडस्ट्री की नजरों में नायिकाओं की उम्र घटती गई, लीला चिटनिस को मां के किरदार मिलने लगे. “आवारा”, “गंगा-जमना”, “गाइड”, “काला बाजार” जैसी फिल्मों में वो मां थीं—पर हर बार अलग. कभी सख्त, कभी टूटी हुई, कभी संघर्षशील. उन्होंने मां के किरदार को महज त्याग की प्रतिमा नहीं, एक जिंदा इंसान की तरह पेश किया.
बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने खुद फिल्म निर्माण और निर्देशन भी किया. “किसी से ना कहना” जैसी फिल्में बनाईं और “आज की बात” जैसी सामाजिक फिल्मों में अपनी सोच को पर्दे पर उतारा. उनका लिखा नाटक “एक रात्रि अर्ध दिवस” आज भी रंगमंच के गंभीर साहित्य में गिना जाता है.
उनकी असली चुनौती तब शुरू हुई जब 1970 के दशक में उन्होंने भारत छोड़ दिया और अमेरिका चली गईं. उनके बच्चे वहीं बस चुके थे. पर वृद्धावस्था में, वह एक नर्सिंग होम में रहीं और यहीं 14 जुलाई 2003 को अंतिम सांस ली, बिना शोर के, जैसे उनके किरदार अक्सर खत्म होते थे!
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केआर/