न्यूक्लियर, बायोलॉजिकल और रेडियोलॉजिकल खतरों से निपटने के लिए नौसेना के रणनीतिक उपकरण

New Delhi, 15 जुलाई . रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने Tuesday भारतीय नौसेना को छह स्वदेशी रूप से डिजाइन और विकसित किए गए रणनीतिक प्रोडक्ट सौंपे हैं. ये स्वदेशी प्रणालियां न्यूक्लियर, बायोलॉजिकल और रेडियोलॉजिकल खतरों के विरुद्ध नौसेना की क्षमताओं को सशक्त बनाएंगे. इसके साथ यह पहल ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को गति भी प्रदान करेंगी.

डीआरडीओ द्वारा सौंपे गए उत्पादों में गामा रेडिएशन एरियल सर्विलांस सिस्टम, एनवायरनमेंटल सर्विलांस व्हीकल, व्हीकल रेडियोलॉजिकल कंटैमिनेशन मॉनिटरिंग सिस्टम, अंडरवॉटर गामा रेडिएशन मॉनिटरिंग सिस्टम, डर्ट एक्सट्रैक्टर एंड क्रॉस कंटैमिनेशन मॉनिटर व ऑर्गन रेडियोएक्टिविटी डिटेक्शन सिस्टम शामिल हैं.

इन अत्याधुनिक उपकरणों को डीआरडीओ के अध्यक्ष डॉ. समीर वी. कामत ने नौसेना मुख्यालय में रियर एडमिरल श्रीराम अमूर को औपचारिक रूप से सौंपा. डीआरडीओ के मुताबिक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ये सभी रक्षा उपकरण नौसेना की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित किए गए हैं. नौसेना को इन उपकरणों का हस्तांतरण जोधपुर स्थित रक्षा प्रयोगशाला में आयोजित एक विशेष समारोह में किया गया.

वहीं डीआरडीओ की ही एक प्रयोगशाला ने कृत्रिम पैर भी विकसित किया है. यह कृत्रिम पैर डीआरडीओ की रक्षा अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशाला (डीआरडीएल) और एम्स बीबीनगर द्वारा स्वदेशी रूप से डिजाइन और विकसित किया गया है. यह मेक-इन-इंडिया के तहत लागत प्रभावी उन्नत कार्बन फाइबर फुट प्रोस्थेसिस (कृत्रिम पैर) है. स्वदेशी रूप से विकसित यह अनुकूलित कार्बन फुट प्रोस्थेसिस (एडीआईडीओसी) आत्मनिर्भर भारत पहल के अंतर्गत एक बड़ी सफलता है.

इस कार्बन फुट प्रोस्थेसिस का अनावरण डीआरडीएल के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक और निदेशक जीए श्रीनिवास मूर्ति और एम्स बीबीनगर के कार्यकारी निदेशक अहंतेम सांता सिंह ने किया. इसका पर्याप्त सुरक्षा कारक के साथ 125 किलोग्राम तक भार के लिए बायोमैकेनिकल परीक्षण किया गया है. विभिन्न भार के रोगियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह तीन प्रकारों में उपलब्ध है. रक्षा मंत्रालय के मुताबिक इस पैर को उच्च-गुणवत्ता और किफायती समाधान प्रदान करने के लक्ष्य के साथ डिजाइन किया गया है ताकि यह जरूरतमंद लोगों को अंतरराष्ट्रीय मॉडलों की तरह यह आसानी से उपलब्ध हो सके.

रक्षा मंत्रालय को उम्मीद है कि इससे उत्पादन की लागत में उल्लेखनीय कमी आएगी. लागत में यह कमी लगभग 20,000 रुपये से भी अधिक कम हो जाएगी, जबकि वर्तमान में आयातित समान उत्पादों की लागत लगभग दो लाख रुपये है. इस नवाचार से देश में निम्न आय वर्ग के दिव्यांगों के लिए उच्च-गुणवत्ता वाले कृत्रिम अंगों तक पहुंच में उल्लेखनीय सुधार, आयातित तकनीकों पर निर्भरता में कमी और दिव्यांगजनों के व्यापक सामाजिक एवं आर्थिक समावेशन को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है.

जीसीबी/