‘भारतीय क्रांति की मां’ भीकाजी कामा, जिन्होंने विदेश में पहली बार फहराया भारतीय ध्वज

नई दिल्ली, 23 सितंबर . साल था 1907 और जगह थी जर्मनी का स्टुटगार्ट. अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन का आयोजन चल रहा था, इसमें दुनियाभर के प्रतिनिधि मौजूद थे. इसी दौरान एक महिला ने सम्मेलन में विदेशी धरती पर भारतीय ध्वज फहरा दिया और ऐलान किया कि यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है. यह महिला थीं भीकाजी कामा. उन्होंने जो ध्वज फहराया, वो भारत के राष्ट्रीय ध्वज से अलग था. हालांकि, आजादी की लड़ाई में उस ध्वज को भारत का प्रतीक माना जाता था.

24 सितंबर 1861 को मुंबई (बॉम्बे) में जन्मीं भीकाजी रुस्तम कामा को मैडम कामा के नाम से भी जाना जाता था. वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख हस्तियों में से एक थीं. एक समृद्ध पारसी परिवार से ताल्लुक रखने वालीं भीकाजी में बचपन से ही मदद और सेवा करने की भावना कूट-कूट कर भरी थी. साल 1896 में बॉम्बे में अकाल पड़ा और उसके कुछ समय बाद ही ब्यूबोनिक प्लेग फैल गया. इस दौरान उन्होंने लोगों की सेवा करने का निर्णय लिया, हालांकि, बाद में वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई थी, लेकिन इलाज के बाद वह ठीक हो गईं.

साल 1900 में वह भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में जुड़ गईं. मैडम कामा पर अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव काफी अधिक था, लेकिन देश से प्रेम की भावना भी उनमें भरी हुई थी. उन्होंने रुस्तम केआर कामा के साथ शादी की, दोनों पेशे से वकील थे और साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता भी थे. मगर उनके विचार अलग थे. भीकाजी राष्ट्र के विचारों से प्रभावित थीं. इसलिए वह समाज सेवक दादाभाई नौरोजी के साथ जुड़ गईं. विदेश में रहकर उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई को प्रमुखता के साथ उठाया और देशभक्ति पर आधारित किताबें भी लिखीं.

उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई जर्मनी की एक घटना ने. उन्होंने जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन के दौरान भारतीय ध्वज फहराया. इस दौरान उन्होंने भारतीय झंडा हाथ में लेकर वहां मौजूद लोगों को इसके बारे में बताया. साथ ही उन्होंने उस सम्मेलन में भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने की अपील भी की. हालांकि, भीकाजी कामा ने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए लंबे समय तक निर्वासित जीवन बिताया.

मैडम भीकाजी कामा ने भारत की आजादी के लिए कई देशों की यात्रा की और इस दौरान उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया. इसी के चलते उनके साथियों ने उन्हें ‘भारतीय क्रांति की मां’ भी कहा. अंग्रेजों ने उन्हें कुख्यात महिला, खतरनाक क्रांतिकारी और ब्रिटिश विरोधी करार दिया था. अंग्रेजों में मैडम भीकाजी का इतना डर था कि उन्हें भारत जाने की भी इजाजत नहीं थी. लेकिन, लंबी कानूनी लड़ाई के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की अनुमति दी.

उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई मरते दम तक जारी रखी. लेकिन, वह भारत को आजाद होते हुए नहीं देख पाईं और 13 अगस्त 1936 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

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