लेफ्टिनेंट राजीव संधू: सबसे कम उम्र के अधिकारी, जिन्होंने दुश्मनों के छुड़ा दिए थे छक्के

New Delhi, 11 नवंबर . साल 1966 में 12 नवंबर को जन्मे राजीव संधू अपने माता-पिता (देविंदर सिंह संधू और जय कांता संधू) के इकलौते संतान थे. अमृतसर से जुड़ा यह परिवार चंडीगढ़ के सेक्टर 45 में रहता था. उनके घर में देशभक्ति कोई नारा नहीं, बल्कि एक विरासत थी. उनके दादाजी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में सेवा की थी और उनके पिता भारतीय वायु सेना में रहे थे. इस तरह, राजीव को बचपन से ही समर्पण और सेवा का पाठ मिला.

चंडीगढ़ के सेंट जॉन हाई स्कूल और पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध डीएवी कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने वाले राजीव की पहचान सिर्फ एक मेधावी छात्र की नहीं थी. वह एक अद्भुत एथलीट थे. उन्होंने लगातार सात वर्षों तक राष्ट्रीय रोलर स्केटिंग चैंपियनशिप का खिताब जीता. रोलर स्केटिंग की तेज रफ्तार और सटीक संतुलन की मांग करने वाले इस खेल ने उन्हें वह शारीरिक सहनशक्ति, मानसिक दृढ़ता और तुरंत प्रतिक्रिया करने की क्षमता दी, जो बाद में रणभूमि में निर्णायक साबित हुई.

एकेडमी में चयन के बाद, राजीव ने चेन्नई स्थित अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी (ओटीए) में प्रशिक्षण लिया. 5 मार्च 1988 को सेकंड लेफ्टिनेंट राजीव संधू (एसएस-33343) को 7वीं बटालियन, द असम रेजिमेंट में कमीशन दिया गया. यह एक ऐसी सैन्य यात्रा की शुरुआत थी जो चार महीने और चौदह दिन में ही समाप्त हो जानी थी.

कमीशन मिलते ही, उन्हें भारतीय शांति सेना के तहत ऑपरेशन पवन के लिए श्रीलंका में तैनात कर दिया गया. गृहयुद्ध से जूझ रहे श्रीलंका के बट्टिकलोआ सेक्टर में तैनात उनकी बटालियन को तुरंत उग्रवादी गुट एलटीटीई के खिलाफ जवाबी कार्रवाई में लगाया गया. कुछ ही हफ्तों में, उन्हें 19 मद्रास रेजिमेंट की ‘सी’ कंपनी के साथ संलग्न कर दिया गया. राजीव सीधे युद्ध के माहौल में कूद पड़े.

19 जुलाई 1988 का दिन. सेकंड लेफ्टिनेंट राजीव संधू को सूखी राशन सामग्री इकट्ठा करने के लिए मदुरंग केनी कुलम से मंगनी की ओर जाने वाले दो वाहनों के छोटे से काफिले का नेतृत्व करने का काम सौंपा गया था.

जैसे ही उनका काफिला आगे बढ़ा, एलटीटीई के उग्रवादियों ने उन पर भीषण घात हमला कर दिया. स्वचलित हथियारों और सबसे ख़ास, रॉकेटों से हमला इतना भयंकर था कि पलक झपकते ही काफिला रुक गया.

राजीव अपनी जीप से बाहर निकले, लेकिन तभी एक रॉकेट का सीधा निशाना उन पर लगा. विस्फोट और गोलियों ने उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. चोट इतनी भयानक थी कि उनके दोनों पैर पूरी तरह क्षत-विक्षत हो चुके थे और उनका शरीर गोलियों से छलनी था. कोई भी साधारण मनुष्य इस दर्द और सदमे के आगे हार मान लेता.

राजीव लहूलुहान होकर अपनी जीप से लुढ़क गए. एलटीटीई के उग्रवादियों ने यह मान लिया कि जीप में सवार सभी सैनिक मारे जा चुके हैं और वे अब सैन्य हथियारों और गोला-बारूद को लूटने के लिए अपने कवर से बाहर निकलने लगे.

यही वह निर्णायक क्षण था जिसने राजीव को इतिहास में अमर कर दिया.

उन्होंने अपनी9 एमएमम कार्बाइन को मजबूती से पकड़ा. अपने दोनों पैरों को खो देने के बावजूद, उन्होंने सिर्फ अपनी इच्छाशक्ति के बल पर जमीन पर रेंगना शुरू किया. वह एक ऐसी जगह तक पहुंचे जहां से वह प्रभावी ढंग से जवाबी फायर कर सकें.

राजीव ने रेंगते हुए अपनी बंदूक उठाई और करीब आ रहे उग्रवादियों पर सटीक निशाना लगाना शुरू कर दिया. उनके अचानक और प्रभावी हमले ने उग्रवादियों को हक्का-बक्का कर दिया. वे हथियारों को छू भी नहीं पाए और उन्हें वापस भागना पड़ा.

अपने आखिरी क्षणों में, राजीव ने अपने सामने आए एक प्रमुख उग्रवादी को गोली मार दी. बाद में पता चला कि वह कराची के नेतृत्व वाले समूह का एक महत्वपूर्ण सेक्टर नेता कुमारन था. यह सिर्फ एक आत्मरक्षा का कार्य नहीं था, यह एक महत्वपूर्ण सामरिक जीत थी.

अपनी शारीरिक क्षमता की अंतिम सीमा तक लड़ने के बाद, सेकंड लेफ्टिनेंट राजीव संधू ने रणभूमि में दम तोड़ दिया. उन्हें तुरंत फील्ड एम्बुलेंस ले जाया गया, जहां उनका निधन हो गया.

राजीव संधू को उनके इस अद्वितीय और आत्म-बलिदानी कार्य के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनके प्रशस्ति पत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की परवाह किए बिना दुश्मन का सामना करने में अनुकरणीय साहस दिखाया और अपने साथियों के जीवन और हथियारों को सुरक्षित रखने के लिए अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया.

मृत्यु के समय, 19 जुलाई 1988 को, उनकी उम्र महज 21 वर्ष और 6 महीने थी और उनका सेवाकाल केवल सवा चार महीने का था. सिर्फ सवा चार महीने के कमीशन के साथ, 21 वर्ष की आयु में, राजीव संधू ने भारतीय सेना के सबसे ऊंचे मानकों को स्थापित किया.

वीकेयू/डीएससी