तनाव और वात दोष के बीच गहरा संबंध, जानें क्या कहता है आयुर्वेद

New Delhi, 10 अगस्त . आज की जीवनशैली में तनाव एक आम समस्या बन गई है, जो न केवल हमारे मेंटल हेल्थ को प्रभावित करती है, बल्कि शारीरिक रूप से भी कई प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है. भागदौड़ भरी दिनचर्या, प्रतिस्पर्धा, समय की कमी और भावनात्मक बोझ के कारण व्यक्ति अक्सर भीतर ही भीतर टूटता चला जाता है. आधुनिक चिकित्सा जहां तनाव को न्यूरोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल दृष्टिकोण से देखती है, वहीं आयुर्वेद इसे शरीर और मन के बीच संतुलन के बिगड़ने के रूप में समझता है.

आयुर्वेद के अनुसार, तनाव केवल मानसिक स्थिति नहीं है, बल्कि यह शरीर के वात दोष के असंतुलन का संकेत है.

विभिन्न आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है. चरक और सुश्रुत संहिता में इसको परिभाषित किया गया है. बताया गया है कि वात दोष वायु तत्व से संबंधित है और यह शरीर में गति, संचार, और तंत्रिका क्रियाओं को नियंत्रित करता है. जब यह दोष असंतुलित होता है, तो व्यक्ति को मानसिक अस्थिरता, बेचैनी, अनिद्रा, और शारीरिक जकड़न जैसे लक्षणों का अनुभव होता है. शरीर में यह असंतुलन सबसे पहले मांस और स्नायु (लिगामेंट) पर असर डालता है, जिससे व्यक्ति को गर्दन, पीठ या कंधों में दबाव महसूस होता है. सुबह के समय शरीर में जकड़न, थकान, और नींद के दौरान दांत पीसने की आदतें इसके स्पष्ट संकेत हो सकते हैं.

तनाव के प्रमुख कारणों में उच्च वात स्तर और शरीर से जमा विषाक्त पदार्थों का समय पर बाहर न निकलना शामिल हैं. जब व्यक्ति लगातार मानसिक दबाव में रहता है और अपने मन की बात किसी से साझा नहीं करता, तो ये भावनाएं शरीर में गहराई से बैठ जाती हैं और तनाव का रूप ले लेती हैं. यह धीरे-धीरे स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है, जिससे शारीरिक तनाव के लक्षण प्रकट होने लगते हैं.

आयुर्वेदिक उपचार में सबसे पहले वात को संतुलित करने की प्रक्रिया अपनाई जाती है. इसके लिए जीवनशैली में नियमितता, गर्म भोजन, पर्याप्त विश्राम और मालिश का महत्व होता है. तेल मालिश शरीर में वात को शांत करती है और मांसपेशियों को लचीलापन देती है.

योग और प्राणायाम भी आयुर्वेद का ही हिस्सा माने जाते हैं, जो मन और शरीर के बीच संतुलन स्थापित करते हैं. विशेषकर अनुलोम-विलोम और श्वास पर नियंत्रण से वात दोष संतुलित होता है और मन को शांति मिलती है.

पीके/केआर