नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर अपने काम से बने ‘जननायक’

पटना, 30 मार्च . आम तौर पर दलगत राजनीति को छोड़ दें तो बिरले नेता ही होते हैं जो आने वाली पीढ़ी के नेताओं के आदर्श बन पाते हैं. कर्पूरी ठाकुर का नाम ऐसे ही नेताओं में शुमार है, जिनके नाम पर आज के नेता भी सियासत करते हैं. सही मायनों में ठाकुर अपनी सादगी और अपने कार्यों से ‘जननायक’ बन गए. कर्पूरी ठाकुर को शनिवार को भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

उनकी सादगी और सामान्य रहन सहन की चर्चा आज भी होती है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को शनिवार को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया. बिहार के समस्तीपुर जिले में पितौंझिया गांव में एक नाई परिवार में 24 जनवरी 1924 को कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था.

आज इस गांव की पहचान ही कर्पूरी गांव के रूप में की जाती है. युवा अवस्था में समाज में परिवर्तन के ख्याल से ये राजनीति में आ गए और कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया जो आजीवन खुला रहा. बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और लंबे समय तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे.

1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे. अपने दो मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में उन्होंने जिस तरह की छाप छोड़ी उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज राज्य के मुख्य राजनीतिक दलों में उनकी विरासत पर दावा जताने की आपसी होड़ नजर आती है.

कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. कर्पूरी ठाकुर ने कई ऐसे फैसले लिए जो न केवल बिहार में बल्कि देश में मिसाल बने. 1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया, जिसके कारण उनकी आलोचना भी खूब हुई लेकिन, इस निर्णय ने बिहार में शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया.

ऐसा बताया जाता है कि उस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मजाक ‘कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं’ कह कर उड़ाया जाता था. देश में सबसे पहले उन्होंने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया. उन्होंने बिहार में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा दिया. स्वतंत्रता का संघर्ष हो या जेपी का आंदोलन, उसमें कर्पूरी ठाकुर की अग्रणी भूमिका रही.

ठाकुर को करीब से जानने वाले बताते हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में कर्पूरी ठाकुर अपने सरकारी आवास पर सुबह से लोगों की समस्याएं सुनने बैठ जाते थे. वे उस दौरान एक टूटी बेंच पर बैठते थे, लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं होती थी.

ठाकुर के निजी सचिव के रूप में कार्य कर चुके बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री पद से हट गए तो वह नहीं चाहते थे कि उनके परिजन उनके साथ पटना में रहें. उनकी आय सीमित थी. वह महीने में 20 दिन के करीब पटना से बाहर बिहार के दौरे पर रहते थे.

उस दौरान उन्होंने परिवार के सभी लोगों को पैतृक गांव पितौंझिया भेज दिया. पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया. वैसे, पूर्व मुख्यमंत्री को भारत रत्न दिए जाने की मांग वर्षों से होती रही है, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने इस मांग को पूरा किया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी भी कहते हैं कि गरीबों, पिछड़ों, अति पिछड़ों के नेता कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर गरीबों को सम्मान दिया गया. यह बिहार के लोगों के लिए सम्मान की बात है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने का तरीका है.

एमएनपी/