‘इमरजेंसी’ में कंगना की एक्टिंग दमदार : सत्ता, सियासत और भावनाओं को खूबसूरती से किया पेश

निर्देशक: कंगना रनौत, कलाकार: कंगना रनौत, अनुपम खेर, श्रेयस तलपड़े, विशाक नायर, महिमा चौधरी, मिलिंद सोमन और सतीश कौशिक, अवधि: 2 घंटे 28 मिनट, रेटिंग: 4.5 स्टार.

कंगना रनौत की इमरजेंसी एक व्यापक, जीवनी पर आधारित महत्वाकांक्षी ड्रामा है, जो भारतीय राजनीतिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण, विवादास्पद दौरों में से एक- 1975 से 1977 के ‘इमरजेंसी’ के दौर को दर्शाता है. इसका उद्देश्य न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तावादी शासन पर प्रकाश डालना है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र, राजनीतिक सत्ता संघर्ष और उस समय के शीर्ष पर बैठे लोगों के निजी जीवन की पेचीदगियों को भी दर्शाता है. दमदार कलाकारों और कंगना के खुद के बेहतरीन निर्देशन के साथ इमरजेंसी राजनीतिक ड्रामा और आधुनिक भारत को नया रूप देने वाले युग का एक समृद्ध चित्रण है.

‘इमरजेंसी’ इंदिरा गांधी के विवादास्पद कार्यकाल और इमरजेंसी लागू करने की पड़ताल है. इस अवधि के दौरान नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था, लोकतंत्र को रौंदकर सरकार ने अनियंत्रित शक्ति का इस्तेमाल किया था.

कंगना रनौत ने फिल्म में पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की भूमिका को जीवंत कर दिया है. उन्होंने किरदार की बारीकी को समझते हुए निभाया है. जो ऐतिहासिक व्यक्तित्व की जटिलता को दर्शाता है.

फिल्म की कहानी गांधी के नेतृत्व से लेकर बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, ऑपरेशन ब्लू स्टार, खालिस्तानी अलगाववाद के उदय और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या सहित प्रमुख घटनाओं को दर्शाती है. हालांकि, 21 महीने की इमरजेंसी अवधि कहानी का भावनात्मक और राजनीतिक केंद्र बनी हुई है. कंगना ने राजनीतिक घटनाक्रम और श्रीमती गांधी के पारिवारिक माहौल को कुशलता से संतुलित करने की कोशिश की है. फिल्म में इंदिरा और उनके बेटे संजय गांधी (विशाक नायर) के बीच तनाव, जबरन नसबंदी अभियान जैसी उनकी विवादास्पद नीतियों को भी प्रमुखता से दिखाया गया है.

यह उल्लेखनीय है कि फिल्म प्रोपेगेंडा नहीं करती है. एक ध्रुवीकरण करने वाली नेता के चित्रण के बावजूद, इमरजेंसी उस समय के दौरान भारतीय राजनीति के जटिल आंकड़ों को कभी भी सरल या रोमांटिक नहीं बनाती है. इसके बजाय, यह शक्ति, आदर्श और अनियंत्रित सत्ता के कठोर परिणामों पर एक बहुआयामी नजरिया प्रस्तुत करती है. अपनी समृद्ध पटकथा के माध्यम से ‘इमरजेंसी’ इतिहास का एक अडिग लेकिन संतुलित नजरिया प्रस्तुत करती है.

फिल्म न तो पूरी तरह से इंदिरा गांधी की निंदा करती है और न ही उन्हें पूरी तरह से दोषमुक्त करती है.

कंगना रनौत का इंदिरा गांधी के रूप में निभाया गया किरदार फिल्म की सबसे बड़ी ताकतों में से एक है. वह भारत की सबसे प्रतिष्ठित प्रधानमंत्रियों में से एक के अडिग व्यक्तित्व को पूरी तरह से पकड़ती हैं, साथ ही उनके निर्णयों को भी प्रस्तुत करती हैं. प्रदर्शन शानदार है और कंगना ने अशांत युग के दौरान गांधी के नेतृत्व को परिभाषित करने वाले दृढ़ संकल्प और भावनात्मक पलों को दिखाने का एक उत्कृष्ट काम किया है.

एक निर्देशक के रूप में कंगना का नजरिया साहसिक और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है. वह ऐतिहासिक घटनाओं को मानवीय नाटक के साथ संतुलित करते हुए कंटेंट में एक अलग, व्यक्तिगत स्पर्श लाती हैं. बिना किसी पक्षपात के कहानी को निर्देशित करने की उनकी क्षमता सराहनीय है और वह अपने सीन्स को गंभीरता के साथ निभाती दिखी हैं और यही दर्शकों को उस समय के तनाव भरे राजनीतिक माहौल से रूबरू कराती है. कंगना का निर्देशन साबित करता है कि वह न केवल एक शानदार अभिनेत्री हैं बल्कि एक दूरदर्शी फिल्ममेकर भी हैं, जो संवेदनशील, जटिल कंटेंट को कुशलता से संभालने में सक्षम हैं.

‘इमरजेंसी’ में शानदार कलाकारों की उपस्थिति प्रभावशाली है, जिसमें प्रत्येक अभिनेता ने यादगार प्रदर्शन किया है. संजय गांधी के रूप में विशाक नायर एक अलग पहचान रखते हैं. उनका चित्रण सम्मोहक और सहानुभूतिपूर्ण दोनों है, जो एक ऐसे व्यक्ति के युवा अहंकार और आदर्शवाद को दर्शाता है जो प्यार और बदनाम दोनों था. नायर ने चरित्र में ऊर्जा भर दी है, जिससे संजय एक ऐसा चरित्र बन गया है जिसकी आपातकाल में विवादास्पद भूमिका दुखद लगती है.

मुख्य विपक्षी नेता जयप्रकाश नारायण की भूमिका को अनुपम खेर ने पूरी गंभीरता से निभाया है. वह लोकतंत्र के लिए अथक योद्धा की भूमिका को पूरी तरह से मूर्त रूप देते हैं, जिससे फिल्म को राजनीति की अराजकता के बीच नैतिक स्पष्टता का एहसास होता है. इसी तरह, जगजीवन राम के रूप में दिवंगत सतीश कौशिक और फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के रूप में मिलिंद सोमन ने गंभीरता से निभाया है, जो फिल्म के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व के चित्रण को सहज बनाता है.

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अपने चित्रण में श्रेयस तलपड़े ने भी गहरा छाप छोड़ा है, जिसमें राजनेता के गरिमामय लेकिन विनम्र व्यक्तित्व को दर्शाया गया है. इंदिरा गांधी की करीबी विश्वासपात्र पुपुल जयकर के रूप में महिमा चौधरी ने फिल्म को भावनात्मक संतुलन प्रदान किया है, जो एक मजबूत लेकिन सहानुभूतिपूर्ण चरित्र को चित्रित करती है. वो प्रधानमंत्री को नाजुक मौकों पर संभालती दिखती हैं. दृश्यात्मक रूप से, इमरजेंसी जीत का एहसास कराती है.

सिनेमैटोग्राफी 1970 के दशक के भारत के सार को खूबसूरती से पकड़ती है, दिल्ली की हलचल भरी सड़कों से लेकर सत्ता के तनावपूर्ण राजनीतिक गलियारों तक. फिल्म के पीरियड डिटेल्स को सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है, जो उस युग को प्रामाणिकता के साथ जीवंत करता है जो इमर्सिव और सूचनात्मक दोनों है.

संगीत की दृष्टि से फिल्म ने कहानी के राजनीतिक और भावनात्मक पहलुओं को और मजबूत करने के लिए अपने साउंडट्रैक का उपयोग करके शानदार काम किया है. “सिंहासन खाली करो” और “सरकार को सलाम है” जैसे गाने ना केवल संगीत के टुकड़े के रूप में काम करते हैं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणी से जुड़े विषयगत रूप में भी काम करते हैं. बैकग्राउंड स्कोर महत्वपूर्ण क्षणों की तीव्रता को और बढ़ाता है, जो उस अवधि की अस्थिर प्रकृति को रेखांकित करने में मदद करता है.

‘इमरजेंसी’ एक महत्वाकांक्षी और विचारों से भरी फिल्म है जो भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय में गहराई से उतरती है.

उस दौर में जब स्क्रीन पर एक्शन पैक्ड फिल्मों की भरमार है- इमरजेंसी एक ताजा और सार्थक फिल्म के रूप में सामने आती है, जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सकता है. यह फिल्म भारत के इतिहास के एक महत्वपूर्ण क्षण में गहराई से उतरती है, यह बताती है कि कैसे इतिहास को ईमानदारी और सम्मान के साथ ही दिलचस्प कहानियों के जरिए कहा जा सकता है. दमदार अभिनय और बारीकियों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देने के साथ, यह फिल्म न केवल मनोरंजन करती है बल्कि शिक्षा भी देती है.

इस महत्वपूर्ण कहानी को जीवंत करने के लिए पूरी टीम को बधाई. ‘इमरजेंसी’ उन लोगों को जरूर देखनी चाहिए, जो मनोरंजन से परे जा अतीत पर गढ़ी विचारोत्तेजक फिल्में देखना पसंद करते हैं.

एमटी/केआर