जयंती विशेष : हिंदी साहित्य के पुरोधा हजारी प्रसाद द्विवेदी; विचार और शब्दों से रचा इतिहास

New Delhi, 18 अगस्त . हिंदी साहित्य और भारतीय संस्कृति का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, उसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित होगा. 19 अगस्त को जन्मे हजारी प्रसाद द्विवेदी केवल एक साहित्यकार ही नहीं थे, वे परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु बनाने वाले युगदृष्टा थे. यूपी के बलिया जिले के छोटे से गांव से निकलकर वे पूरे हिंदी संसार में अपने ज्ञान, लेखन और विचारधारा के कारण आदर्श बन गए.

द्विवेदी की शिक्षा संस्कृत महाविद्यालय, काशी से आरंभ हुई, जहां उन्होंने 1929 में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर ‘शास्त्राचार्य’ की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद उन्होंने अपना रुख शांति निकेतन की ओर किया, जहां 8 नवंबर 1930 से उन्होंने हिंदी शिक्षक के रूप में कार्यारंभ किया. अगले दो दशकों तक वे वहीं अध्यापन कार्य से जुड़े रहे और 1940-50 तक हिंदी भवन, शांति निकेतन के निदेशक भी रहे. इसी दौरान उन्हें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन का सान्निध्य मिला, जिसने उनके चिंतन और लेखन को और गहराई दी.

इसके बाद, 1950 में वे वापस वाराणसी आए और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष बने. 1952-53 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष रहे. 1955 में उन्हें प्रथम राजभाषा आयोग में राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्य बनाया गया. 1960 से 1967 तक वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे और इसके बाद 1967 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में रेक्टर नियुक्त हुए. अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वे भारत सरकार की हिंदी विषयक योजनाओं से जुड़े रहे. जीवन के अंतिम वर्षों में वे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष रहे.

हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक योगदान अत्यंत व्यापक रहा. उन्होंने उपन्यास, निबंध, आलोचना, व्याकरण और इतिहास जैसे विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. उनके उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘अनामदास का पोथा’ और ‘पुनर्नवा’ हिंदी साहित्य में आज भी मील का पत्थर माने जाते हैं. निबंध संग्रहों में ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘आलोक पर्व’, ‘कल्पलता’ और ‘विचार प्रवाह’ विशेष उल्लेखनीय हैं. वहीं आलोचना के क्षेत्र में उनकी कृतियाँ हिंदी साहित्य की भूमिका, नाथ सम्प्रदाय, कबीर, सूर-साहित्य और मध्यकालीन बोध का स्वरूप उनकी गहरी विद्वत्ता को प्रमाणित करती हैं.

उनकी भाषा और शैली सरल, प्रांजल, व्यंजक और आत्मपरक थी. व्यंग्य के प्रयोग ने उनके निबंधों को बोझिल होने से बचाया और पाठकों को सहज रूप से जोड़ने का कार्य किया. उन्होंने हिंदी गद्य शैली को नया रूप दिया और उसे आधुनिक दृष्टिकोण प्रदान किया. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और बांग्ला जैसी भाषाओं के गहन अध्ययन के साथ-साथ इतिहास, दर्शन, धर्म और संस्कृति पर उनकी पकड़ ने उनके साहित्य को और अधिक समृद्ध बनाया. उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति स्थिर नहीं, बल्कि निरंतर विकसित होती है. इसलिए वे परंपरा और आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के समन्वय में विश्वास करते थे. यही कारण है कि उनकी रचनाओं में भारतीयता की गहरी जड़ें भी दिखती हैं और आधुनिक समाज की धड़कन भी.

उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए. 1949 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि दी, 1957 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया. पश्चिम बंगाल साहित्य अकादमी ने उन्हें टैगोर पुरस्कार दिया और 1973 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया. आलोक पर्व कृति के लिए मिला यह सम्मान उनके लेखन की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता का प्रमाण है.

साल 1979 में 19 मई को हजारी प्रसाद द्विवेदी इस संसार से विदा हो गए, लेकिन उनकी रचनाएं, उनके विचार और उनका व्यक्तित्व आज भी साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके जीवनकाल में था. उनकी जयंती केवल एक साहित्यकार को याद करने का अवसर नहीं है, बल्कि उस दृष्टा को नमन करने का भी समय है जिसने भारतीय परंपरा को आधुनिक चेतना के साथ जोड़कर आने वाली पीढ़ियों के लिए नई राह बनाई.

पीएसके/एएस