New Delhi, 5 सितंबर . शरत चंद्र बोस को अक्सर सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई के रूप में जाना जाता है , लेकिन यह पहचान अधूरी है. वे खुद में एक विचार थे, एक आंदोलन थे. उनकी कहानी कोई एक-दो घटनाओं की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की है जो आजादी की लड़ाई को सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आंदोलन के रूप में दर्शाती है.
6 सितंबर, 1889 को कोलकाता में जन्मे शरत चंद्र बचपन से ही तेजस्वी थे. प्रेसीडेंसी कॉलेज और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से पढ़ाई के बाद वे इंग्लैंड चले गए. वहां 1911 में उन्होंने बैरिस्टरी की उपाधि ली. वे जब लौटे, तो उनके सामने एक साफ रास्ता था, एक सफल वकील बनना, आराम की जिंदगी जीना. ये वो दौर था जब हर युवा के मन में देशभक्ति की ज्वाला उठ रही थी, और शरत चंद्र बोस ने भी अपने दिल की सुनी.
युवा होने के नाते, शरत ने उन सालों में बंगाल में व्याप्त प्रारंभिक क्रांतिकारी जोश को देखा और आत्मसात किया. वे बंगाल के विभाजन के असफल साम्राज्यवादी प्रयास के विरुद्ध आंदोलन में शामिल हो गए.
भारतीय राजनीति में उनका प्रवेश किसी महत्वाकांक्षा से नहीं हुआ. वे चितरंजन दास से बहुत प्रभावित थे और उन्हीं के कहने पर कांग्रेस में शामिल हुए. असहयोग आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की. वे नेतृत्व में नहीं थे, लेकिन लोगों के बीच थे. उनकी भाषा में दम था, सोच में स्पष्टता थी और दिल में आग. यही वजह थी कि जल्द ही वे कांग्रेस के अखिल भारतीय नेताओं में गिने जाने लगे.
तमाम समाचार और लेखों में जिक्र मिलता है कि राजनीतिक आचरण में शुद्धता में दृढ़ विश्वास रखने वाले शरत चंद्र का मानना था, “जो कुछ भी नैतिक रूप से गलत है, वह राजनीतिक रूप से सही नहीं है.”
इसी विचारधारा के साथ उन्होंने अपने संघर्ष को जारी रखा. 1936 में बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बने. इसके बाद केंद्रीय विधानसभा में कांग्रेस के नेता भी रहे. जब 1946 में अंतरिम सरकार बनी, तो उन्हें मंत्री की जिम्मेदारी दी गई. यह एक तरह से उस भरोसे का प्रतीक था, जो उनमें जताया गया था.
छोटे भाई सुभाष चंद्र बोस के साथ शरत चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की नींव रखी. सुभाष चंद्र बोस आगे आए, लेकिन शरत बाबू ने पीछे रहकर रणनीति, सहयोग और समर्थन में कोई कमी नहीं आने दी. नेताजी के निधन के बाद उन्होंने इस आंदोलन की जिम्मेदारी भी संभाली.
शिशिर कुमार बोस ने ‘शरत चंद्र बोस: रिमेम्बरिंग माई फादर’ में शरत चंद्र बोस की उपलब्धियों पर काफी-कुछ लिखा है. शिशिर बोस ने अपनी किताब में लिखा है, “यह जीवनी दो असाधारण भाइयों की कहानी है. एक जाने-माने बैरिस्टर और सार्वजनिक व्यक्ति, जो ब्रिटिश भारत में एक प्रभावशाली शक्ति थे और दूसरे इस देश के एक क्रांतिकारी और राष्ट्रीय नायक, जिन्हें दुनिया ‘नेताजी’ के रूप में याद करती है और उनका आज भी बेहद सम्मान करती है.”
1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन एक कीमत पर और वो कीमत बंटवारे के रूप में चुकानी पड़ी. शरत चंद्र बोस इससे टूट गए. उनकी सोच साफ थी, देश के लिए जो रास्ता सच्चा हो, वही सही है. चाहे वो गांधी का मार्ग हो या सुभाष का. उनके भीतर एक प्रखर राष्ट्रभक्ति की मशाल थी. वे क्रांतिकारियों का सम्मान करते थे, उनके साथ खड़े भी रहते थे जब जरूरत होती.
उन्होंने पूरी ताकत से विभाजन का विरोध किया, लेकिन जब उनकी आवाज को अनसुना किया गया, तो उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति से इस्तीफा दे दिया. यह कोई साधारण फैसला नहीं था. आजादी की दहलीज पर खड़े होकर, सत्ता के दरवाजे खुले होने के बावजूद, उन्होंने अपने सिद्धांतों को चुना. ऐसे फैसले वही ले सकते हैं, जिनके भीतर सत्ता से ज्यादा चरित्र का बल होता है.
20 फरवरी, 1950 को शरत चंद्र बोस ने दुनिया को अलविदा कहा. वे चले गए, लेकिन अपने पीछे एक ऐसा नाम छोड़ गए, जिसे इतिहास ने उतना नहीं दोहराया, जितना वह हकदार था.
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डीसीएच/एबीएम