झारखंड. झारखंड में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) आदिवासियों के अधिकारों और उनके कल्याण के नाम पर जनता का समर्थन मांग रही है. लेकिन, जो पार्टी आदिवासियों की ‘अपनी पार्टी’ होने का दावा करती है, क्या वह वाकई उनकी उम्मीदों पर खरी उतरी है?
‘अबुआ आवास योजना’—जिसे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आदिवासियों के जीवन में बदलाव लाने के लिए एक ऐतिहासिक पहल के रूप में प्रस्तुत किया था—आज भ्रष्टाचार, घूसखोरी और प्रशासनिक विफलता के आरोपों से घिरी हुई है. आदिवासी परिवार, जो इस योजना के तहत अपने पक्के घर की उम्मीद लगाए बैठे थे, आज सरकारी बाबुओं और ठेकेदारों की मनमानी के कारण निराश हैं.
क्या है ‘अबुआ आवास योजना’?
15 अगस्त 2023 को बड़े जोर-शोर से शुरू की गई अबुआ आवास योजना का उद्देश्य था झारखंड के आदिवासी और गरीब समुदायों को 2 लाख रुपये की लागत में तीन कमरों वाला पक्का मकान मुहैया कराना. योजना के तहत मुख्यमंत्री ने 25 लाख परिवारों को आवास देने का वादा किया था.
इस योजना के माध्यम से आदिवासी परिवारों को सुरक्षित और स्थायी आवास उपलब्ध कराकर उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने का वादा किया गया था. सरकार ने दावा किया था कि यह योजना आदिवासियों को उनके अधिकार देने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगी.
वादा बनाम हकीकत
जमीन पर जब इस योजना की सच्चाई की परख की गई, तो तस्वीर बिल्कुल उलटी नजर आई. आदिवासी इलाकों में रहने वाले परिवारों का कहना है कि योजना के तहत न तो समय पर फंड मिल रहा है और न ही आवास निर्माण का कार्य सही तरीके से हो रहा है.
भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने इस योजना पर निशाना साधते हुए कहा, “झारखंड सरकार की ‘अबुआ आवास योजना’, अब ‘बाबू आवास योजना’ बन गई है. जब तक घूस नहीं देंगे, मकान नहीं मिलेगा.”
आदिवासियों का कहना है कि बिना रिश्वत दिए योजना के तहत उन्हें मकान की स्वीकृति नहीं मिल रही. योजना के तहत घर पाने के लिए कागजी कार्रवाई के लंबे झंझट और नौकरशाही की पेचीदगियों से गुजरना पड़ता है.
भ्रष्टाचार और घूसखोरी का बोलबाला
आदिवासी परिवारों का आरोप है कि सरकारी अधिकारी, ठेकेदार और पंचायत प्रतिनिधि खुलेआम रिश्वत मांगते हैं.
एक आदिवासी महिला ने बताया, “हमने सारे दस्तावेज पूरे कर दिए, लेकिन जब तक 5,000 रुपये रिश्वत नहीं दी, तब तक फंड जारी नहीं हुआ. हमारे पास इतनी रकम कहां से आए?”
ग्रामीणों का दर्द:
- बिना रिश्वत के फंड नहीं:
आवास निर्माण के लिए स्वीकृति पाने के लिए घूस देना आम बात हो गई है. - अधूरी निर्माण प्रक्रिया:
कई इलाकों में निर्माण कार्य आधे-अधूरे पड़े हैं. - गुणवत्ता का अभाव:
जिन मकानों का निर्माण हुआ है, उनकी गुणवत्ता बेहद खराब है.
सरकार के दावे और जमीनी सच्चाई
सरकार के आंकड़े दावा करते हैं कि योजना के पहले चरण में 2 लाख आवासों की स्वीकृति दी गई है और पहली किस्त जारी हो चुकी है. लेकिन इन घरों का निर्माण कब तक पूरा होगा, इस पर सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है.
योजना की अधिकारिक वेबसाइट पर भी कितने घर बन चुके हैं, इसकी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई है. सिर्फ यह लिखा गया है कि सरकार 2026 तक सभी बेघर और जीर्ण-शीर्ण घरों में रहने वाले परिवारों को पक्का आवास देने के लिए प्रतिबद्ध है.
क्या आदिवासी वादों के नाम पर ठगे जा रहे हैं?
हेमंत सोरेन सरकार के खिलाफ आदिवासी समुदाय का असंतोष बढ़ता जा रहा है. उन्होंने कई घोषणाएं कीं, लेकिन इनमें से ज्यादातर घोषणाएं कागजों तक सीमित रह गईं.
आदिवासी इलाकों में विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं. जमीन के अधिकार, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के वादे भी अधूरे पड़े हैं.