जिसको मानते थे अपना आदर्श, उसी के रिप्लेसमेंट के तौर पर इंडस्ट्री में मिली एंट्री, फिर क्या था उनके आवाज के फैलाव ने लोगों के दिलों को छू लिया

नई दिल्ली, 26 सितंबर . हिंदी सिनेमा की एक ऐसी रूहानी आवाज जिनके सुरों में इतनी जान थी कि वह हर किसी के दिल को छू ले. एक ऐसी आवाज जिसके साथ सुबह की शुरुआत लोग आज भी करते हैं. जिनकी आवाज में भजन हो या फिर देशभक्ति गीत, एक बार कोई सुन ले तो वह मदहोश हो जाए. एक ऐसा फनकार जिनकी आवाज सुनकर मो. रफी ने कह दिया था कि ‘हम दोनों साथ में गाने नहीं गाएंगे, क्योंकि हमारी आवाजें मिलती हैं.’

महेंद्र कपूर इंडस्ट्री का हिस्सा तब बने जब रफी साहब इंडस्ट्री में बड़े गायक बन चुके थे. महेंद्र कपूर ने रियलिटी शो मेट्रो मर्फी प्रतियोगिता जीती और उन्हें कॉन्टेस्ट जीतने के बाद फिल्म ‘नवरंग’ में गाना गाने का अवसर प्राप्त हुआ था. महेंद्र कपूर हनुमान जी के बड़े भक्त थे, ऐसे में भगवान के आशीर्वाद से उनके आलाप का दायरा भी उतना ही विशाल था.

अमृतसर पंजाब में 9 जनवरी 1934 को जन्मे महेंद्र को बचपन से ही गाने का शौक था. मोहम्मद रफी की गायकी का उन पर काफी ज्यादा प्रभाव था. वह एक सफल पार्श्वगायक बनना चाहते थे. फिर सितारों ने उनका साथ भी दिया और उन्होंने रियलिटी शो मेट्रो मर्फी प्रतियोगिता जीत ली. इसके बाद उनका मुंबई आने का रास्ता साफ हो गया. फिर 1953 में आई फिल्म ‘मदमस्त’ में साहिर लुधियानवी के लिखे गाने ‘आप आए तो खयाल-ए-दिल-ए नाशाद आया’ को महेंद्र कपूर ने अपनी आवाज दी. हालांकि, 1958 में फिल्म ‘नवरंग’ में ‘आधा है चंद्रमा रात आधी’ गाने में उन्होंने जब अपनी आवाज दी तो उन्हें लोगों के बीच पहचान मिली.

फिल्म ‘उपकार’ के गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती..’ ने तो उन्हें एक अलग ही मुकाम दे दिया. इस गाने के लिए उन्हें बेस्ट प्लेबैक सिंगर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला.

मनोज कुमार तब देशभक्ति फिल्मों में अभिनय के लिए जाने जाते थे. वह महेंद्र कपूर और उनकी आवाज को अपने लिए लकी मानते थे. ‘नीले गगन के तले’, ‘तुम अगर साथ देने का वादा करो’, ‘बीते हुए लम्हों की कसक’, ‘चलो एक बार फिर से अजनबी’, ‘किसी पत्थर की मूरत’ जैसे रोमांटिक गानों को भी महेंद्र कपूर ने जब अपनी आवाज दी तो उनके आवाज की मधुरता लोगों के कानों में चीनी की चाशनी की तरह घुल गई.

जब महेंद्र कपूर ने गायक के तौर पर बॉलीवुड में पदार्पण किया तब हिंदी सिनेमा में संगीत का स्वर्ण काल चल रहा था और मो. रफी, किशोर कुमार, मन्ना डे, तलत महमूद जैसे दिग्गज गायक पहले से मौजूद थे और उनकी आवाज लोगों को अपना दीवाना बना चुकी थी. ऐसे में महेंद्र कपूर के लिए अपनी जगह बनाना थोड़ा मुश्किल था क्योंकि उनकी आवाज रफी साहब से मिलती थी. वह आए भी इंडस्ट्री में मोहम्मद रफी के रिप्लेसमेंट के तौर पर ही थे. लेकिन, उनका संगीत के प्रति जुनून और उनकी काम के प्रति दीवानगी ही थी, जिसने उन्हें ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ का नाम दिलाया.

एक और बात है बॉलीवुड के दिग्गज फिल्म निर्माता बीआर चोपड़ा और मोहम्मद रफी के बीच मनमुटाव ने ही महेंद्र कपूर को इंडस्ट्री में पांव जमाने में मदद की. बीआर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों में गाएं, यह मोहम्मद रफी को मंजूर नहीं था. इसी बात से नाराज बीआर चोपड़ा ने इंडस्ट्री को एक और मोहम्मद रफी देने का फैसला कर लिया, तब उनकी नजर महेंद्र कपूर पर पड़ी.

1972 में भारत सरकार ने महेंद्र कपूर को कला के क्षेत्र में अहम योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया. 27 सितंबर 2008 को दिल का दौरा पड़ने से महेंद्र कपूर का निधन हो गया.

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