हरिप्रसाद चौरसिया : 13 साल की उम्र में थामी बांसुरी, फिर तो एक-दूजे की पहचान बन गए साज और कलाकार

नई दिल्ली, 30 जून . भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाइयों तक ले जाने वाले विश्वविख्यात बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की कहानी शानदार और प्रेरणादायी है. अपनी जीवन और कला से उन्होंने यह साबित किया कि सच्चा जुनून और समर्पण असंभव को भी संभव बना सकता है. यदि बांसुरी ने उन्हें शोहरत दी तो उन्होंने बांसुरी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक पेशेवर वाद्य यंत्र के रूप में स्थापित किया.

पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का जन्म 1 जुलाई 1938 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ था. उनके पिता एक पहलवान थे, जिनका सपना था कि उनका बेटा भी कुश्ती के अखाड़े में नाम कमाए. लेकिन, नियति को कुछ और ही मंजूर था. मात्र पांच साल की उम्र में मां का साया सिर से उठ जाने के बाद हरिप्रसाद बनारस आए. उनका बचपन बाबा विश्वनाथ की नगरी में गलियों और गंगा तट पर बीता. गंगा की लहरों और मंदिरों की घंटियों के बीच उनकी आत्मा में संगीत की लय बसने लगी थी.

पिता की इच्छा थी कि हरिप्रसाद कुश्ती सीखें, लेकिन उनका मन तो संगीत की दुनिया में रमता था. 13 साल की उम्र में उन्होंने गुपचुप तरीके से तबला सीखना शुरू किया. लेकिन, जल्द ही उनकी मुलाकात बांसुरी से हुई और यह मुलाकात उनकी जिंदगी का सबसे अहम मोड़ बन गई.

हरिप्रसाद ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर संगीत की राह चुनी. उनकी प्रारंभिक संगीत शिक्षा बनारस में शुरू हुई, लेकिन असली गुरु बनीं सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ बाबा अलाउद्दीन खान की बेटी मां अन्नपूर्णा देवी. मां अन्नपूर्णा के सान्निध्य में हरिप्रसाद ने बांसुरी वादन की बारीकियां सीखीं. उनकी साधना ऐसी थी कि बांसुरी की हर धुन में वह अपनी आत्मा के रंग को भर देते थे.

1950 के दशक में हरिप्रसाद ने ऑल इंडिया रेडियो, कटक में बतौर बांसुरी वादक अपने करियर की शुरुआत की. यह वह दौर था जब बांसुरी को शास्त्रीय संगीत में ज्यादा तवज्जो नहीं दिया जाता था. लेकिन, हरिप्रसाद ने अपनी कला से बांसुरी को न केवल शास्त्रीय मंचों पर स्थापित किया, बल्कि इसे दुनिया में बड़ी पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई.

केवल ग्लोबल प्लेटफॉर्म ही नहीं, बल्कि उन्होंने फिल्म जगत में भी अपनी कला का जादू को बिखेरा. उन्होंने संगीतकार जोड़ी शिव-हरि (शिवकुमार शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया) के रूप में कई यादगार फिल्मों में संगीत दिया, जिनमें ‘चांदनी’, ‘लम्हे’ और ‘डर’ जैसी फिल्में भी शामिल हैं. उनकी बांसुरी की धुनें लोगों के दिलों में बसती हैं.

हरिप्रसाद ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी दुनिया से जोड़ा. उन्होंने विश्वप्रसिद्ध कलाकारों जैसे जॉर्ज हैरिसन, जॉन मैकलॉघलिन और यहूदी मेनुहिन के साथ काम कर कला की दुनिया में अहम जगह बनाई. उनकी बनाई ‘कॉल ऑफ द वैली’ एल्बम ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब वाहवाही बटोरी. इस एल्बम ने बांसुरी को वैश्विक मंच पर एक नया मुकाम दिलाया.

पंडित हरिप्रसाद चौरसिया केवल एक वादक ही नहीं, बल्कि एक प्रेरक गुरू भी हैं. उन्होंने मुंबई और भुवनेश्वर में ‘वृंदावन गुरुकुल’ की स्थापना की, जहां सैकड़ों शिष्यों को बांसुरी वादन की शिक्षा दी जाती है. उनके शिष्यों में राकेश चौरसिया जैसे नाम भी शामिल हैं, जो आज बांसुरी वादन की दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं.

पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की कला को देश-विदेश में कई सम्मानों से नवाजा गया है. भारत सरकार ने उन्हें साल 1992 में पद्म भूषण और साल 2000 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. इसके अलावा, उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, कालिदास सम्मान और नीदरलैंड के प्रतिष्ठित ‘ऑर्डर ऑफ द नीदरलैंड्स लायन’ जैसे सम्मान भी मिले. उनकी बांसुरी की धुनों ने न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया, बल्कि विश्व संगीत को भी एक नया आयाम दिया.

उनका निजी जीवन उतना ही सरल और प्रेरणादायक है, जितनी उनकी कला. उनकी पत्नी अनुराधा चौरसिया उनके जीवन का मजबूत आधार रहीं. संगीत के प्रति उनका समर्पण और सादगी आज भी युवा कलाकारों के लिए प्रेरणा है. वह कहते हैं, “बांसुरी मेरे लिए सिर्फ एक वाद्य यंत्र नहीं, मेरी आत्मा का हिस्सा है.”

86 साल की उम्र में भी पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का उत्साह और संगीत के प्रति जुनून कम नहीं हुआ है. उनकी बांसुरी की धुनें आज भी श्रोताओं को भाव-विभोर कर देती हैं. चाहे वह राग यमन की मधुरता हो या राग दरबारी की गहराई, उनकी बांसुरी हर राग को एक नया रंग देती है.

एमटी/एकेजे