गिरिजाकुमार माथुर और सोंभु मित्रा: साहित्य और रंगमंच के प्रगतिशील सितारे

New Delhi, 21 अगस्त . भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में 22 अगस्त की तारीख खास है. इस दिन दो ऐसे रचनाकारों का जन्म हुआ, जिन्होंने अलग-अलग विधाओं में कला को नया आयाम दिया. हिंदी के प्रगतिशील कवि गिरिजाकुमार माथुर और बंगाली रंगमंच के प्रखर अभिनेता-निर्देशक सोंभु मित्रा. एक ने शब्दों और गीतों के माध्यम से जनमानस को स्वर दिया. वहीं, दूसरे ने रंगमंच की शक्ल बदलकर उसे सामाजिक परिवर्तन का औजार बनाया.

22 अगस्त 1919 को मध्य प्रदेश के अशोक नगर में जन्मे गिरिजाकुमार माथुर हिंदी कविता के उस दौर के कवि हैं जिन्होंने प्रयोगवाद और प्रगतिवाद को आत्मसात किया. पिता देवीचरण माथुर से कविता का संस्कार पाया और निराला की प्रेरणा से साहित्य यात्रा प्रारंभ की. उनका पहला संग्रह ‘मंजीर’ (1941) प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका स्वयं निराला ने लिखी. जल्द ही वे अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1943) में शामिल किए गए. यह वह दौर था जब हिंदी कविता विद्रोही चेतना और नए मुहावरों की तलाश में थी.

गिरिजाकुमार माथुर का जीवन केवल कविता तक सीमित नहीं था. वे विविध भारती जैसे लोकप्रिय रेडियो चैनल के सूत्रधार रहे. उनके गीत ‘छाया मत छूना मन’ और अमेरिकी गीत ‘वी शैल ओवरकम’ का हिंदी रूपांतर ‘हम होंगे कामयाब’ आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करता है. उनकी कविताओं में मालवा की धरती की सुगंध भी है और वैज्ञानिक चेतना की चमक भी. संग्रह ‘मैं वक्त के हूं सामने’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और व्यास सम्मान प्राप्त हुआ.

अपनी किताब ‘मुझे और अभी कहना है’ में गिरिजाकुमार माथुर लिखते हैं, “किसी कवि से पचास साल की लंबी रचना यात्रा के बाद यदि यह अपेक्षा की जाए कि वह अपनी कविता के बारे में कुछ लिखे, यह बात ही मुझको बेमानी-सी लगने लगी है. इतने लंबे समय में कवि ने जो कुछ लिखा है वह सबके सामने होता है. वह जिस सोपान तक पहुंच सकता था, वहां लगभग पहुंच चुका होता है. उसकी सफलता और विफलता का मूल्याकंन आलोचक कर चुके होते हैं. उसे जो स्थान प्राप्त हुआ या नहीं हुआ वह हो चुका होता है. जो लिख सकता था और जो नहीं लिख सका वह भी उसके सामने होता है. उसके जीवन, कार्य-क्षेत्र की सामाजिक स्थिति, उसकी रूचि, लोगों के साथ उसके संबंध, व्यक्तिगत चरित्र, स्वभाव, रूचियां, परिवार, मित्र, समाज, पास-पड़ोस, परिवेश, राजनीति तथा तमाम जिन्दगी के बारे में उसका दृष्टिकोण समाने आ चुका होता है या कम से कम लोग अपनी धारणाएं बना चुके होते हैं.”

माथुर आगे लिखते हैं, “यह बात विशेष रूप से मैं अपने बारे में इसलिए भी कह रहा हूं कि मेरे जैसे कवि ने जिसने शुरू से ही अपनी रचना यात्रा की कठिन राह अलग से बनाना तय कर लिया था और जिसने कभी अपने कटु से कटु विरोध में किसी भी टिप्पणी या आलोचना का न जवाब दिया, न अपने संबंध में कोई बड़े दावे या स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए, वह अपने बारे में इतने दशकों के बाद अब क्या कहे? अपने बारे में कुछ कहना आत्मश्लाघा-सा लगता है जिससे हमेशा मुझे अरूचि रही है लेकिन जो कवि अब भी यह समझता है कि अभी और बहुत कुछ लिखना बाकी रह गया है तथा उसकी कविता के पीछे ऐसी संस्कार भूमियां और जीवन की प्रेरक चीजें रही हैं, जो सामने नहीं आ सकीं, तब उन अपरिचित, अनभिव्यक्त बातों को सामने रखना अपनी कविता की पहचान के लिए जरूरी हो जाता है.”

वहीं, 22 अगस्त 1915 को कोलकाता में जन्मे सोंभु मित्रा भारतीय रंगमंच की सबसे प्रभावशाली हस्तियों में गिने जाते हैं. बालीगंज गवर्नमेंट हाई स्कूल से लेकर सेंट ज़ेवियर कॉलेज तक पढ़ाई के दौरान उन्होंने अभिनय की ओर रुझान पाया.

1939 में रंगमहल थियेटर से अभिनय यात्रा शुरू की और जल्द ही इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (आईपीटीए) से जुड़े. 1948 में उन्होंने अपना रंगमंच समूह स्थापित किया, जिसने बंगाली थिएटर को आधुनिक रंग दिया.

उनकी निर्देशकीय दृष्टि ने रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘रक्तकरबी’ को एक कालजयी रंग-प्रस्तुति में बदल दिया. मित्रा के नाटकों में सामाजिक व्यंग्य, मानवीय पीड़ा और गहन हास्य का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है. वे स्वयं भी बहुआयामी अभिनेता थे- शायलॉक से लेकर किंग लियर तक, हर भूमिका में वे दर्शकों को चकित कर देते थे. उनके रंगमंच ने मनोरंजन करने के साथ-साथ समाज की विसंगतियों पर गहरा प्रहार भी किया. इसके लिए उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जैसे सम्मान प्राप्त हुए.

गिरिजाकुमार माथुर और सोंभु मित्रा, दोनों की कला भले अलग माध्यमों से अभिव्यक्त हुई हो, लेकिन उनकी दृष्टि एक जैसी थी. कला का उद्देश्य केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि समाज की चेतना को जागृत करना है. माथुर ने कविता और गीतों के जरिए लोकचेतना और मुक्ति की आकांक्षा को स्वर दिया. वहीं, मित्रा ने रंगमंच के जरिए अन्याय, शोषण और सामाजिक व्यंग्य को मंच पर सजीव किया. दोनों रचनाकारों ने अपने-अपने क्षेत्र में नई राहें खोलीं और आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श और प्रेरणा बन गए.

पीएसके/जीकेटी