पाकिस्तान के पूर्व सैन्य अधिकारियों ने कहा, कारगिल युद्ध उनके देश की भूल थी

इस्लामाबाद, 18 अप्रैल . पाकिस्तान के पूर्व सैन्य अधिकारियों ने भारत व पाकिस्तान के बीच 1999 में हुए कारगिल युद्ध को अपने देश की एक रणनीतिक भूल करार दिया है. जिसे इसके वास्तुकार और पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह दिवंगत जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सफलता की कहानी के रूप में सराहा था.

कर्नल (सेवानिवृत्त) अशफाक हुसैन कहते हैं कि यह योजना एक बड़ी भूल और बड़ी विफलता थी. यह पाकिस्तान के लिए एक आपदा साबित हुई. इसने भारत और पाकिस्तान के बीच लाहौर शिखर सम्मेलन समझौते का भी उल्लंघन किया. उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया, यहां तक कि उसने अपने सैनिकोें के शवों को भी स्वीकार नहीं किया. बाद में इन शवों को भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा दफनाया गया, जो पाकिस्तानी सेना के लिए अत्यंत अपमानजनक था.

मई-जुलाई 1999 के दौरान हुआ कारगिल युद्ध पाकिस्तान के कुछ वरिष्ठ सेनाधिकारियों द्वारा लिया गया निर्णय था. इन अधिकारियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को विश्वास में लिए बिना ही ऑपरेशन शुरू कर दिया था.

ऑपरेशन का मुख्य लक्ष्य कश्मीर और लद्दाख के बीच संपर्क को काटना, राष्ट्रीय राजमार्ग -1 को बाधित करना और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से पीछे हटने को मजबूर करना था. युद्ध की योजना बनाने वालों को मानना था कि यह ऑपरेशन भारत को पीछे हटने और इस्लामाबाद की शर्तों पर कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत की मेज पर आने के लिए मजबूर करेगा.

हुसैन ने कहा ने कहा, एक तरफ पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना करना पड़ा और दूसरी तरफ चीन ने इस्लामाबाद के मन मुताबिक सहयोग नहीं किया. हमारे तत्कालीन विदेश मंत्री सरताज अजीज के प्रयासों को भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अनुकूल समर्थन नहीं मिला.

उस समय, जनरल मुशर्रफ ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे थे, जबकि उनकी टीम में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल अजीज खान, कमांडर 10 कोर लेफ्टिनेंट जनरल महमूद अहमद और फोर्सेज कमांडर उत्तरी क्षेत्र मेजर जनरल जावेद हसन शामिल थे.

पूर्व सैन्य अधिकारियों ने कहा कि कारगिल ऑपरेशन कुछ सैन्य प्रमुखों के दिमाग की उपज थी, लेकिन यह गलत धारण पर आधारित थी. इससे देश के वायु व नौसेना प्रमुखों के साथ-साथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से भी छिपाकर रखा गया था.

गौरतलब है कि यह एक प्रथा बन गई थी कि भारत और पाकिस्तान के सैनिक सर्दियों में भारी बर्फबारी के दौरान अधिक ऊंचाई पर स्थित अपनी चौकियों को छोड़ देते थे और वसंत में उन पर फिर से कब्जा कर लेते थे. लेकिन उस साल पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सैनिकों से पहले ही कारगिल, द्रास और बटालिक की रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण चौकियों पर कब्जा कर लिया और अपने नियंत्रण में ले लिया.

इसके बाद भारतीय सेनाओं ने अपनी चौकियों पर दोबारा कब्ज़ा करने के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ शुरू किया. पाकिस्तानी सेना ने ऊंची चोटियों का फायदा उठाया और भारतीय गोलाबारी का जवाब दिया.

रावलपिंडी में इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) में एक अधिकारी के रूप में काम करने के दौरान ‘विटनेस टू ब्लंडर’ पुस्तक के लेखक सेवानिवृत्त कर्नल अशफाक हुसैन अपने उस समय के अनुभव के बारे में कहते हैं कि “हमें ऊंची चोटी की स्थिति का फायदा मिला. हम भारतयी सेना को ऊंचाई से देख सकते थे और अधिक प्रभावी ढंग से जवाबी हमला कर सकते थे.

इस युद्ध की योजना बनाने वाले पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों उम्मीद थी कि कारगिल की ऊंची चोटियों पर उसके कब्जे से भारतीय सेना सियाचिन से हट जाएगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय स्थिति को सामान्य करने के लिए हस्तक्षेप करेगा, इससे एलओसी (नियंत्रण रेखा) पर पाकिस्तान को फायदा होगा.

सेना अधिकारियों का कहना है कि शुरू में योजना से अनभिज्ञ होने का दावा करने वाले तत्कालीन प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़, को इसकी जानकारी थी. लेकिन इसके परिणाम का उन्हें अंदाजा नहीं था.

उनका मानना है कि शरीफ का विचार रहा होगा कि यदि ऑपरेशन योजना के अनुसार चलता है, तो वह कश्मीर के विजेता के रूप में इसे स्वीकार कर लेंगे. लेकिन योजना पर उनकी सीमित जानकारी और भारत द्वारा अपनाई गई जवाबी आक्रामक रणनीति का सही आंकलन नहीं होने के कारण शरीफ ने घटनाक्रम से अनजान बने रहना ही पसंद किया.

जून के अंत तक कारगिल ऑपरेशन पाकिस्तान के लिए एक विनाशकारी विफलता साबित हुई. अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान से एलओसी के भारतीय हिस्से से अपनी सेना तुरंत वापस करने को कहा.

कर्नल (सेवानिवृत्त) अशफाक हुसैन कहते हैं, “कारगिल ऑपरेशन 1971 के आत्मसमर्पण से भी कहीं बड़ी भूल थी.”

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