नई दिल्ली, 23 फरवरी . फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के अलावा, कृषि ऋण माफी दिल्ली-पंजाब सीमाओं पर आंदोलन कर रहे किसानों की प्रमुख मांगों में से एक है.
किसानों के आंदोलन के दूसरे दौर को कांग्रेस का भी समर्थन मिला है, जिसने आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ता में आने पर किसानों की मांगें पूरी करने का वादा किया है.
किसान-सरकार की चार दौर की वार्ता में कोई निर्णायक नतीजा नहीं निकला है, हालांकि भाजपा सरकार ने यह दावा करके राहत देने की कोशिश की है कि एमएसपी गारंटी पर कानून बनाने में जल्दबाजी नहीं की जा सकती, क्योंकि इसके लिए कई हितधारकों के साथ परामर्श की जरूरत होती है.
दूसरी ओर, राहुल गांधी ने हाल ही में एक सार्वजनिक रैली में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार फसलों के लिए एमएसपी गारंटी लागू करने का संकल्प लिया.
भारत रत्न एम.एस. स्वामीनाथन ने वर्ष 2004-2006 के दौरान प्रस्तुत अपनी पांच रिपोर्टों में किसी भी फसल के लिए उत्पादन की भारित औसत लागत से 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी आवंटन की सिफारिश की थी. इससे सभी किसानों के लिए 50 प्रतिशत रिटर्न सुनिश्चित होगा.
स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करने की राहुल गांधी की प्रतिज्ञा के तुरंत बाद 2010 में यूपीए शासन के दौरान संसद सत्र के प्रश्नकाल से संबंधित एक दस्तावेज सामने आया, जो इसे लागू करने के लिए कांग्रेस की अनिच्छा और प्रतिरोध को दर्शाता है.
भाजपा सांसद के सवाल के जवाब में यूपीए सरकार ने रिपोर्ट को “अव्यावहारिक और अव्यवहार्य” करार दिया था और इसे लागू होने से रोक दिया था.
इससे भाजपा को किसानों को अवास्तविक वादों से ‘मूर्ख’ बनाने और फिर उन्हें तोड़ने के लिए कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल गया.
इसने कांग्रेस पर जनता से बड़े-बड़े वादे करने और फिर उनसे मुकरने का भी आरोप लगाया और दावा किया कि उसे दिखावटी दिखावा करने की प्रथा बंद करनी चाहिए और लोगों की ‘सच्ची सेवा’ शुरू करनी चाहिए.
कांग्रेस के चुनावी वादों पर नजर डालने से पता चलता है कि कई राज्यों में पार्टी शासित सरकारों ने लोगों का समर्थन जीतने के लिए कृषि ऋण माफी का वादा किया था. लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने सरकारी खजाने की कमी का हवाला देते हुए इसे दबा देने का फैसला किया.
चूंकि कृषि ऋण माफी को सत्ता में वापसी का ‘निश्चित’ साधन माना जाता है, इसलिए पार्टी अक्सर कई राज्यों में इस चुनावी हथकंडे का सहारा लेती है, और जब बात पर अमल करने का समय आता है, तो कांग्रेस सरकारें या तो लड़खड़ा जाती हैं या पीछे हट जाती हैं.
पिछले कुछ उदाहरण चुनावी वादों के मामले में कांग्रेस के दोहरे बोल को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं. कई राज्यों में उसने कृषि ऋण माफी का वादा किया और फिर सत्ता में आने के बाद इसे लागू करने से इनकार कर दिया.
पांच राज्यों में 2018 के विधानसभा चुनावों के दौरान, कांग्रेस ने अपने अभियान को कृषि ऋण माफी के इर्द-गिर्द संरचित किया. उसे तीन राज्यों-छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी सत्ता मिल गई. हालांकि, इन सभी राज्यों में पार्टी ने अपना चुनावी वादा छोड़ दिया, जिससे किसानों को ‘धोखा देने’ का आरोप लगा.
कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) ने 2018 विधानसभा चुनाव के दौरान 44,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी का वादा किया था. हालांकि, इसने आवंटित बजट में एक तिहाई की कटौती कर दी. एच.डी. कुमारस्वामी ने तब स्वीकार किया था कि सरकार ने आवंटित बजट 15,880 करोड़ रुपये के मुकाबले कृषि ऋण माफी पर केवल 5,450 करोड़ रुपये खर्च किए.
मध्य प्रदेश में कमल नाथ सरकार ने न केवल कृषि ऋण माफी लागू करने से इनकार कर दिया, बल्कि केंद्र सरकार की 51 कल्याणकारी योजनाओं पर भी रोक लगा दी. उस पर राज्य के किसानों के लिए पीएम किसान योजना के कार्यान्वयन में बाधा डालने की ‘साजिश रचने’ का भी आरोप लगाया गया, क्योंकि उसने ‘लाभार्थियों’ के रूप में उनके वर्गीकरण के लिए केंद्र को अपनी सूची नहीं भेजी थी.
सांख्यिकीय रूप से कुछ पार्टियों, मुख्य रूप से कांग्रेस ने 1987 और 2020 के बीच 21 चुनावों में कृषि ऋण माफी को एक बड़ा चुनावी एजेंडा बनाया. नाबार्ड के आंकड़ों से पता चलता है कि दिलचस्प बात यह है कि इनमें से 17 चुनाव स्पष्ट रूप से उन लोगों द्वारा जीते गए, जिन्होंने कर्ज माफी का वादा किया था.
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एसजीके/