आपातकाल के दंश को युवाओं को याद रखना चाहिए : हुकुमदेव नारायण यादव

नई दिल्ली, 12 जून . आज से ठीक 50 साल पहले 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी थी. इस ऐतिहासिक फैसले के बाद देश में आपातकाल लागू किया गया. इस घटना को याद करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री हुकुमदेव नारायण यादव ने आपातकाल के दौर की अपनी यादें साझा कीं और युवाओं से इसकी सच्चाई को समझने का आह्वान किया.

उन्होंने कहा कि मैं देश के युवाओं से आग्रह करूंगा, आपातकाल क्यों लगाया गया? व्यक्तिगत कारण था, व्यक्तिगत स्वार्थ या राष्ट्रहित या समाज हित या संवैधानिक कारण या कोई देश के ऊपर आंतरिक या बाहर बहुत बड़ा खतरा था, इसके बारे में अध्ययन करें, अनुसंधान करें और तथ्य और सत्य को समाज के सामने लाएं. दूसरी बात है कि व्यक्तिगत हित के कारण अगर संविधान, न्यायालय, प्रशासन का दुरुपयोग किया गया था, तो इस पर चिंतन होना चाहिए कि ऐसी स्थिति भारत में नहीं आए और जो स्थिति आई थी, उसके पीछे जो कोई भी थे, वह क्या संवैधानिक तौर पर अपराधी थे या नहीं, यह प्रश्न है. भारत के युवाओं को उत्तर खोजना चाहिए.

उन्होंने बताया कि मैं उस समय विधायक था. छात्र आंदोलन हुआ था. 1974 में छात्र आंदोलन के समर्थन में हमने कर्पूरी ठाकुर जी के साथ विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद मुझे गिरफ्तार किया गया और खतरनाक कानूनों के तहत जेल में डाल दिया गया. जेल में हालात अमानवीय थे. 10 बाय 4 फीट के कमरे में लोहे की सलाखों के पीछे बंद रखा जाता था. एक घड़ा पानी और एक मिट्टी का गमला मिलता था, जिसमें खाना, पीना और शौच सब करना पड़ता था. जेल में मेरा वजन 80 किलो से घटकर 60 किलो रह गया.

हुकुमदेव नारायण यादव ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल की प्रशंसा की, जिन्होंने इंदिरा गांधी की सदस्यता रद्द करने का साहसिक फैसला सुनाया था. उन्होंने कहा कि जगमोहन लाल इतिहास पुरुष हैं. उनकी मूर्ति हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लगनी चाहिए. जिस दिन भारत की न्यायपालिका उनके जैसी निष्पक्ष और निर्भीक होगी, उस दिन संविधान पर कोई खतरा नहीं रहेगा. इंदिरा गांधी ने अपनी सदस्यता बचाने के लिए कानून में संशोधन किया और उसे लागू किया. न्यायपालिका का उस समय मौन समर्थन मिलना दुखद था. एक तरफ जगमोहन लाल जैसे निष्पक्ष जज थे, तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी के पक्ष में मौन साध लिया. यह सवाल आज भी प्रासंगिक है कि तब न्यायपालिका क्यों चुप रही?

उन्होंने आगे कहा कि मैं मधुबनी से चुनाव लड़ा, जहां लोग 2 रुपए, 4 आना देकर मेरा समर्थन करते थे. यह जनता की ताकत थी, जिसने मुझे जिताया. उस समय गरीब, निर्धन, निर्बल, पिछड़े, दलित लोगों की जो अपार शक्ति का समर्थन मिला था और एक तरफ न्यायपालिका का इंदिरा गांधी के अन्याय को मौन समर्थन मिला था. दोनों में कौन सही है, दोनों में कौन संविधान के प्रति समर्पित है. इस पर युवा वर्ग को सोचना चाहिए, चिंतन करना चाहिए और संकल्प लेना चाहिए कि भारत में ऐसी स्थिति कभी न आने पाए.

एकेएस/एबीएम