New Delhi, 13 सितंबर . ‘माथे के ऊपर चमक रहे, नभ के चमकीले तारे हैं, मुझको तो हिम से भरे हुए अपने पहाड़ ही प्यारे हैं.‘ हिंदी के ‘कालिदास’ के रूप में विख्यात हुए चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविता से ली गई यह चंद लाइनें हमें बताती हैं कि उनके लिए प्रकृति और हिमालय कितना महत्वपूर्ण था. उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से अपने हृदय में बसे पहाड़ों के प्रति गहरे लगाव और प्रकृति के सौंदर्य को दर्शाया है. उनकी रचनाएं न केवल हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, बल्कि लोक संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को भी जीवंत करती हैं.
हिंदी साहित्य को अपनी अनमोल कविताओं का खजाना सौंपकर इस कवि ने महज 28 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया. उत्तराखंड में 20 अगस्त 1919 को जन्में इस कवि ने स्वाधीनता संग्राम के कठिन दिनों को याद करते हुए लिखा था, मुझे विश्वास है कि वह दिन दूर नहीं जब देश आजाद होगा. उन्होंने लिखा, ‘हृदयो में जागेगा प्रेम और नैनों में चमक उठेगा सत्य. मिटेंगे झूठे सपने.‘ उनकी लिखी हुई बात भी सच हुई, अंग्रेजों से भारत ने 15 अगस्त 1947 को आजादी हासिल की. आंखों से आजादी देखने का सपना उनका पूरा हुआ, लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. 14 सितंबर को उन्होंने हमेशा के लिए आंखें बंद कर ली. लेकिन उनके पीछे छोड़ा गया साहित्यिक खजाना, जो आज भी हिंदी जगत को रोशन करता है.
उत्तराखंड की हिमालयी वादियों में जन्मे इस कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से पहाड़ों की गोद, नदियों की धारा और वनस्पतियों के सौंदर्य को इतने जीवंत ढंग से चित्रित किया कि पाठक स्वयं उन प्राकृतिक दृश्यों में खो जाते हैं. उनकी कविताओं में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत पात्र है जो मानव जीवन के उतार-चढ़ाव को प्रतिबिंबित करती है. आज भी उनके काव्य पर शोधकार्य हो रहे हैं, और वे हिंदी साहित्य के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं, जिन्होंने कम आयु में ही प्रसद्धि हासिल की.
कुंवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखंड के तत्कालीन चमोली जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में हुआ था. उनके पिता एक निष्ठावान अध्यापक थे, जिनकी प्रेरणा से चन्द्र कुंवर को साहित्य और शिक्षा के प्रति लगाव हो गया. उनका वास्तविक नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था, लेकिन साहित्यिक जगत में वे चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के नाम से प्रसिद्ध हुए. स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण वे लंबे समय तक शहरों में नहीं रह सके और गांव लौट आए.
प्रकृति के निकट रहकर उन्होंने अपनी रचनाओं को और समृद्ध किया. उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा. स्वास्थ्य खराब रहने के बावजूद उन्होंने निरंतर लेखन किया. हिंदी का कालिदास उन्हें इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि उनकी कविताओं में महाकवि कालिदास की भांति प्रकृति का मानवीकरण प्रमुख है. वे स्वयं कालिदास को अपना गुरु मानते थे. मात्र 28 वर्ष के छोटे से जीवन में उन्होंने लगभग 1,000 कविताएं, 24 कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य रचा.
यह अकेला शून्य कमरा, यह अकेली चारपाई, गरीबी, बीमारियों के साथ यह ऐसी तबाही, किसी से मिलना न जुलना, ये घृणित बातें सभी, भाग्य ने दीं तुम्हें, या तुमने, हृदय, थीं स्वयं चाही? कविता ‘अकेला कमरा’ से ली गई है.
चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का जीवन छोटा लेकिन सार्थक था. उनकी रचनाएं न केवल साहित्यिक मूल्य को जिंदा रखती हैं, बल्कि हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक हैं.
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डीकेएम/जीकेटी