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New Delhi, 24 नवंबर . सुरिंदर कौर का नाम सुनते ही हर दिल झूम उठता है. उनकी आवाज का जादू और गीतों की मिठास आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. यही वजह है कि लोग उन्हें ‘पंजाब दी कोयल’ या ‘पंजाब दी आवाज’ कहकर बुलाते हैं. अगर पंजाबी संगीत की दुनिया में कोई लता मंगेशकर जैसी हैं, तो वो हैं सुरिंदर कौर.
सुरिंदर कौर का जन्म 25 नवंबर 1929 को पंजाब में हुआ था. भारत-Pakistan के विभाजन से पहले ही उनके गाने लोगों के दिलों में जगह बनाने लगे थे. संगीत के प्रति उनका लगाव कमाल का था. लेकिन, उन्हें शुरू में घर में गाने की अनुमति नहीं थी. उनके बड़े भाई ने इस बात को समझा और सुरिंदर और उनकी बहन प्रकाश कौर को संगीत की शिक्षा दिलाने में मदद की. 12 साल की उम्र में दोनों बहनों ने मास्टर इनायत हुसैन और पंडित मणि प्रसाद से शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया.
सुरिंदर कौर का पहला बड़ा ब्रेक 1943 में लाहौर रेडियो से आया, जब उन्होंने बच्चों के म्यूजिक प्रोग्राम के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट हो गईं. इसके बाद उन्होंने और उनकी बहन ने अपनी पहली एल्बम में ड्यूएट गाया, जिसमें ‘मावां ते धीयां रल बैठियां’ गाना काफी पॉपुलर हुआ. यह गाना इतना हिट हुआ कि दोनों रातों-रात स्टार बन गईं.
विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आया और फिर Mumbai में बस गया. Mumbai में उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में बतौर प्लेबैक सिंगर काम करना शुरू किया. सुरिंदर ने सरदार जोगिंदर सिंह सोढ़ी से शादी की, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे. पति जोगिंदर का पूरा साथ और प्यार ही था, जिसने सुरिंदर को इस मुकाम तक पहुंचाया. दोनों ने साथ में कई सुपरहिट गाने लिखे और गाए, जैसे ‘चन कित्था गुजारी आई रात वे’, ‘लठ्ठे दी चादर’, ‘गोरी दिया झांझरां’ और ‘सड़के-सड़के जांदिये मुटियारे नी.’
सुरिंदर कौर का संगीत करियर लगभग छह दशक लंबा रहा और उन्होंने 200 से ज्यादा गाने गाए. उनके योगदान के लिए उन्हें ‘पंजाब की कोकिला’ कहा गया और उन्हें 1984 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 2006 में पद्मश्री से नवाजा गया.
आज जब हम सुरिंदर कौर को याद करते हैं, तो सिर्फ उनके गानों की नहीं, बल्कि उनकी आवाज की भी याद आती है. उनकी मधुर आवाज आज भी हर संगीत प्रेमी के दिल में बसती है.
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पीआईएम/एबीएम