नई दिल्ली, 7 सितंबर . स्त्री को सिर्फ एक स्त्री के रूप में देखने से उसकी मनोदशा समझी जा सकती है. कुछ ऐसी ही सलाह सुरेंद्र वर्मा देते हैं. उन्होंने एक घर में मौजूद पति-पत्नी के रिश्ते में गुंथे सवालों और समस्याओं को बड़ी बेबाकी से दुनियाभर के सामने रखा है.
‘मुझे चांद चाहिए’ उपन्यास में हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार सुरेंद्र वर्मा ने मानवीय जीवन को जिस तरीके से उतारा है, उसे पढ़कर आप भी मिश्रित भावनाओं से भर जाएंगे. आधुनिक काल के सशक्त हस्ताक्षर सुरेंद्र वर्मा का जन्म 7 सितंबर 1941 को उत्तर प्रदेश के झांसी में हुआ था. प्रख्यात लेखक और नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने लेखन की दुनिया में काफी नाम और सम्मान कमाया है.
उनका पहला नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण’ तक का अनुवाद छह भाषाओं में हो चुका है. इस नाटक का अमोल पालेकर के निर्देशन में मराठी में साल 1972 में पहला मंचन हुआ था. इस नाटक की लोकप्रियता इतनी रही कि इस पर मराठी भाषा में ‘अनाहत’ नाम से फिल्म भी बनी. आज भी हिंदी साहित्य प्रेमियों के बीच यह अद्भुत नाटक काफी पसंदीदा है.
सुरेंद्र वर्मा ऐसे नाटककार हैं, जिन्होंने किनारे में बैठकर जिंदगी को देखते हुए लिखना नहीं चुना. वह तो मानवीय संवेदनाओं के गहरे में उतर गए और अपने अनुभवों को शब्दों की चाशनी में डुबोकर किताब के पन्नों पर ऐसे उकेरा कि पढ़ने वाले ‘वाह वाह’ करने से नहीं चूके. ‘मुझे चांद चाहिए’ के लिए 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सुरेंद्र वर्मा ने कई बहुमूल्य रचनाएं की हैं.
‘मुझे चांद चाहिए’ उपन्यास पर एक धारावाहिक का निर्माण भी किया गया है. उनके दूसरे नाटक ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ ने भी खूब सुर्खियां बटोरी हैं. सुरेंद्र वर्मा की रचनाओं में मुख्य रूप से मानवीय त्रासदी, संवेदनाएं तथा स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों को समझते हुए पन्नों पर यथोचित जगह देने का काम किया गया है. इस कला में सुरेंद्र वर्मा को विशेष महारत हासिल रही है.
सुरेंद्र वर्मा का दृष्टिकोण यथार्थवादी और प्रगतिशील है. उन्होंने स्त्री के अस्तित्व को मां, बहन, पत्नी और मित्र के रूप में कभी नहीं तलाशा. उन्होंने एक स्त्री को ‘स्त्री’ के रूप में ही देखा. यही उनकी लेखनी को यथार्थ के बेहद करीब या यूं कहें पूर्णत: सत्य बनाता है. भले ही कहने को पात्र या घटनाएं काल्पनिक हैं, सुरेंद्र वर्मा के हुनर ने उसमें सच्चाई का विशेष पुट जोड़ दिया है.
सुरेंद्र वर्मा ने एक नाटककार के रूप में शुरुआत की. उनका काफी समय नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से जुड़ाव रहा. उनके लघुकथा, व्यंग्य, उपन्यास और नाटकों के करीब पंद्रह शीर्षक प्रकाशित हुए. सुरेंद्र वर्मा को 1993 में ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ और 1996 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. जबकि, वह 2016 में ‘व्यास सम्मान’ से नवाजे गए.
उनके 1972 में तीन नाटक संग्रह, ‘सेतुबंध, नायक-खलनायक विदूषक और द्रौपदी’, से लेकर 2011 में प्रकाशित ‘रति का कंगन’ पौराणिक और ऐतिहासिक कथा-प्रसंगों के बदलते दौर में काम (संभोग) के स्वरूप का बखूबी ढंग से वर्णन करते हैं. उन्होंने काम-संबंध की जगह प्रेम के मूल्य को स्थापित करने की कोशिश की. इसका विरोध भी हुआ तो जबरदस्त लोकप्रियता भी मिली.
सुरेंद्र वर्मा के ‘सेतुबंध’ नाटक में प्रभावती कहती है, “भावना के बिना शारीरिक संभोग रेप होता है और मैं उसी का परिणाम हूं.” ‘सेतुबंध’ नाटक कालिदास और प्रभावती के परस्पर प्रेम और यौन संबंधों की असमाजिकता से उत्पन्न तनाव एवं त्रासदी को सामने रखती है. प्रभावती पिता के दबाव में आकर एक अनचाहे पुरुष से विवाह कर लेती है, मन ही मन कालिदास की ही बनी रहती है.
उन्होंने अपने नाटक के जरिए आधुनिक युग के सुख के मायनों और मानकों पर करारा प्रहार किया है. उन्होंने विश्वविद्यालयों में चल रहे अनैतिक कार्य और गुरु-शिष्य संबंधों के गिरते स्तर पर भी सवाल उठाए हैं. उनके उपन्यास ‘अंधेरे से परे’, ‘मुझे चांद चाहिए’, ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’, ‘काटना शामी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से’ ने काफी सुर्खियां बटोरी है. ‘प्यार की बातें’, ‘कितना सुंदर जोड़ा’ समेत अन्य भी उनकी कालजयी रचनाएं है.
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एबीएम/एफजेड