बर्थडे स्पेशल : फिराक गोरखपुरी और राजेंद्र यादव, जिनके लिखने के अंदाज में थी क्रांति की ललक और बेबाकी

नई दिल्ली, 28 अगस्त . उर्दू शायरी हो या फिर हिंदी साहित्य. अक्सर चर्चाएं होती हैं कि इनमें कौन एक-दूसरे से बेहतर है. लेकिन, हम आज आपको उर्दू शायरी और हिंदी साहित्य की दो ऐसी शख्सियतों के बारे में बताएंगे, जिन्होंने अपनी कलम की स्याही से समाज को नई दिशा देने का काम किया. हम बात कर रहे हैं उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी और लोकप्रिय उपन्यासकार राजेंद्र यादव की. इन दोनों ही हस्तियों का जन्म 28, अगस्त को हुआ था.

28 अगस्त 1896 को गोरखपुर जिले के बनवारपार गांव में जन्में फिराक गोरखपुरी का असली नाम रघुपति सहाय था. वे उर्दू के ऐसे शायर थे, जिन्होंने उर्दू शायरी में भी क्रांति की ललक पैदा की. “आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो, जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने ‘फिराक’ को देखा है”, फिराक का ये शेर उनके मिजाज को बताने के लिए काफी है.

फिराक गोरखपुरी का रुतबा ऐसा था कि उनकी गिनती उर्दू साहित्य की महानतम शख्सियतों में शुमार मुहम्मद इकबाल, यगाना चंगेजी, जिगर मुरादाबादी और जोश मलीहाबादी जैसे शायरों में होती थी. फिराक लिखते हैं कि ‘बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की, सौ बात बन गई है ‘फिराक’ एक बात की’.

शुरुआती दिनों से ही फिराक का उर्दू शायरी की ओर रूझान था. उन्होंने उर्दू, फारसी और अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्री हासिल की. इसके बाद फिराक गोरखपुरी इलाहाबाद विश्वविद्यालय आए, यहां उन्होंने अंग्रेजी कविता पढ़ानी शुरु की. फिराक ने अधिकतर उर्दू शायरी लिखी. इनमें उनकी गुल-ए-नगमा भी शामिल है. इसके लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1960 में उर्दू में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. इसके अलावा फिराक को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में साल 1968 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. हालांकि, लंबी बीमारी के बाद 3 मार्च 1982 को नई दिल्ली में उनका निधन हो गया.

लोकप्रिय उपन्यासकार राजेंद्र यादव की बात करें तो उनका जिक्र किए बिना हिन्दी साहित्य अधूरा सा लगता है. उन्होंने उपन्यासकार, कथाकार, आलोचक और संपादक के रूप में अपनी पहचान बनाई.

28 अगस्त 1929 को जन्में राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ के संपादक रहे. उनके उपन्यास, कहानी, कविता और आलोचना सहित साहित्य की तमाम विधाओं पर अच्छी पकड़ थी. साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत और मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे. तब राजेंद्र यादव ही इस विरासत को बचाने के लिए आगे आए. उन्होंने प्रेमचंद द्वारा 1930 में प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ का पुर्नप्रकाशन शुरु किया था.

कविता से लेखन की शुरुआत करने वाले राजेंद्र यादव ने बड़ी बेबाकी से अपनी बात को कलम के माध्यम से रखने का काम किया. उन्होंने अपने लेखों में दलित व नारी विमर्श को मुख्य जगह देने का काम किया. यही नहीं, पत्रिका ‘हंस’ ने न जाने कितनी प्रतिभाओं को पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया. संपादक राजेंद्र यादव को हिन्दी साहित्य का ‘द ग्रेट शो मैन‘ भी कहा जाता है. उन्होंने ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘एक इंच मुस्कान’, ‘कुलटा’, ‘अनदेखे अनजाने पुल’, ‘मंत्र विद्ध’, ‘स्वरूप और संवेदना’ और ‘एक था शैलेन्द्र’ जैसे उपन्यास भी लिखे.

राजेंद्र यादव का निधन 84 वर्ष का उम्र में 28 अक्टूबर 2013 को नई दिल्ली में हो गया था.

एफएम/एएस