पटना, 7 अगस्त . बिहार विधानसभा चुनाव की आहट के साथ ही सीमांचल के मुस्लिम बहुल किशनगंज विधानसभा क्षेत्र पर राजनीतिक हलचल तेज हो गई है. ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण इस सीट पर मुकाबला रोचक होने वाला है. एक ओर जहां कांग्रेस अपनी पारंपरिक पकड़ को बरकरार रखने की इस सीट पर कोशिश करेगी, वहीं भाजपा इस बार पूरी ताकत से यहां जीत की तलाश में है. वहीं एआईएमआईएम भी एक बार फिर मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने के प्रयास में जुटी है.
किशनगंज न सिर्फ एक विधानसभा सीट है, बल्कि यह सीमांचल क्षेत्र की राजनीतिक धुरी भी है. इसका इतिहास खगड़ा नवाब मोहम्मद फकीरुद्दीन के दौर से जुड़ा है. एक हिंदू संत के विरोध के बाद ‘आलमगंज’ नाम बदलकर ‘कृष्णा-कुंज’ रखा गया, जो आगे चलकर ‘किशनगंज’ कहलाया. किशनगंज 14 जनवरी 1990 को पूर्णिया से अलग होकर जिला बना, जो आज 1,884 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है.
यह जिला पूर्वी हिमालय की तलहटी में स्थित है, जहां महानंदा, मेची और कंकई जैसी नदियां बहती हैं. नेपाल और बंगाल की सीमाओं से सटे इस इलाके को पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. किशनगंज बिहार का एकमात्र ऐसा इलाका है जहां वाणिज्यिक स्तर पर चाय की खेती होती है.
किशनगंज की आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 16,90,948 थी, जिसमें मुस्लिम बहुलता है. यहां मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं. 19 में से 17 बार मुस्लिम उम्मीदवार यहां से विजयी रहे हैं. यहां तक कि 1967 में सुशीला कपूर के बाद कोई हिंदू उम्मीदवार जीत दर्ज नहीं कर पाया. 57.04 फीसदी की साक्षरता दर और लगभग 897 लोगों की प्रति वर्ग किमी जनसंख्या घनत्व के साथ यह क्षेत्र बिहार की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता है.
रेल और सड़क नेटवर्क के लिहाज से किशनगंज एक प्रमुख केंद्र है. दिल्ली, Mumbai , कोलकाता, पटना और गुवाहाटी जैसे बड़े शहरों से सीधा रेल संपर्क है. एनएच 31 किशनगंज को बिहार और पूर्वोत्तर भारत से जोड़ता है. गरीब नवाज एक्सप्रेस, जो यहीं से शुरू होती है, इसकी रेल पहचान को और मजबूत बनाता है.
किशनगंज विधानसभा सीट पर अब तक 19 चुनाव हुए हैं. इनमें से कांग्रेस ने 10 बार जीत हासिल की है, जबकि राजद ने 3 बार. अन्य दलों – जैसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनता दल, लोकदल और एआईएमआईएम को एक-एक बार जीत मिली है. बीजेपी अब तक इस सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई है, हालांकि कई बार बेहद नजदीकी मुकाबले में वह जरूर रही है. 2010 में स्वीटी सिंह सिर्फ 264 वोटों से और 2020 में 1,381 वोटों से यहां से पराजित हुईं.
2020 में कांग्रेस के इजहारुल हुसैन ने यह सीट जीती, जबकि एआईएमआईएम की बढ़ती पकड़ से मुस्लिम वोटों में बंटवारा देखा गया, जिसने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया. यदि 2025 में भी एआईएमआईएम मुस्लिम वोटों में सेंध लगा पाती है और हिंदू वोट एकजुट रहते हैं, तो बीजेपी पहली बार यहां जीत का स्वाद चख सकती है.
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पीएसके/जीकेटी