यूपी के केला किसानों के लिए बड़ी राहत : फ्यूजेरियम विल्ट रोग का कारगर इलाज खोजा गया

लखनऊ, 5 अक्टूबर . उत्तर प्रदेश के केला उत्पादकों के लिए खुशखबरी है. केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान (सीआईएसएच), लखनऊ ने केले की फसल को बर्बाद करने वाले फ्यूजेरियम विल्ट रोग का प्रभावी इलाज खोज निकाला है. इस घातक फफूंद जनित रोग से प्रभावित क्षेत्रों में फसलें बर्बाद हो रही थीं, लेकिन अब बायोएजेंट ‘फ्यूसिकोंट’ के इस्तेमाल से किसानों को राहत मिलेगी.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबद्ध केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान (सीआईएसएच), लखनऊ, और करनाल स्थित केंद्रीय लवणता शोध संस्थान से संबद्ध क्षेत्रीय शोध केंद्र लखनऊ ने मिलकर इसका इलाज खोजा. पेटेंट होने के साथ अब कृषि विज्ञान केंद्र अयोध्या के माध्यम से इसके प्रयोग के लिए किसानों को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. नतीजे भी अच्छे रहे हैं. सोहावल के जो किसान केला बोना बंद या कम कर दिए थे, अब फिर से केला बोने लगे हैं.

उल्लेखनीय है कि डॉ. टी. दामोदरन के नेतृत्व में रोग के रोकथाम के लिए बायोएजेंट, आईसीएआर फ्यूसिकोंट (ट्रायकोडर्मा आधारित सूत्रीकरण) और टिशू कल्चर पौधों के जैव-टीकाकरण का उपयोग कर एक प्रबंधन प्रोटोकॉल विकसित किया गया. उत्पाद फ्यूसिकोंट केले विल्ट प्रबंधन के लिए एक 9 (3 बी) पंजीकृत सूत्रीकरण था. किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्पादन और आपूर्ति के लिए आईसीएआर द्वारा इसका वाणिज्यीकरण भी किया गया है.

संस्थान के निदेशक डॉ. टी. दामोदरन के अनुसार संस्थान द्वारा तैयार बायोजेंट (फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन) पानी में पूरी तरह घुलनशील होता है.

रोग से बचाव के लिए एक किलो बायोएजेंट को 100 लीटर पानी में मिला लें और एक-एक लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद डालें . अगर रोग के लक्षण फसल पर दिखाई दें तो 100 लीटर पानी में 3 किलो फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन 500 ग्राम गुड़ के साथ घोल लें और दो दिन बाद एक- दो लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद प्रयोग करें.

उन्होंने केला उत्पादक किसानों को यह भी सलाह दी कि वह फसल चक्र में बदलाव करते रहे. पहले साल की फसल में इस रोग के संक्रमण की संभावना बहुत कम होती है. पर उसी फसल की पत्ती से दूसरी फसल लेने पर संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है. बेहतर हो कि केले के बाद धान, गेहूं, प्याज, लहसुन आदि की फसल लें. फिर केले की फसल लें. इससे मिट्टी का संतुलन भी बना रहता है और संक्रमण का खतरा भी कम हो जाता है.

संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक पी.के. शुक्ल के मुताबिक जब कोई फसल गैर परंपरागत क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचलित होती है तो इस तरह के रोगों के संक्रमण का खतरा भी होता है. केले के साथ भी यही हुआ. हाल ही में डॉ. पी.के. शुक्ल ने अमेठी, बाराबंकी, अयोध्या, गोरखपुर, महाराजगंज, संत कबीर नगर जिलों में स्थित 144 केले के बागों का निरीक्षण किया. पाया कि केले के जड़ क्षेत्र में पादप परजीवी सूत्रकृमि की कई प्रजातियां मौजूद थीं. ये सूत्रकृमि फसल की उपज क्षमता में प्रत्यक्ष कमी के अलावा फसल को कवक जनित रोगों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं. यद्यपि उनकी आबादी को आर्थिक क्षति सीमा से नीचे ही देखा गया था, तथापि, फसल चक्र और टिशू कल्चर पौधों के रोपण का पालन करके उनकी जनसंख्या को नियंत्रित रखना ही केला किसानों के लिए बेहतर होगा.

यूपी सरकार केले की फसल के आर्थिक और पोषण संबंधी महत्व के मद्देनजर केले की खेती को लगातार प्रोत्साहन दे रही है. केले की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर अनुदान के साथ ड्रिप या स्प्रिंकलर और सोलर पंप लगाने पर भी भारी अनुदान देती है. यही नहीं सरकार ने केले को कुशीनगर का एक जिला, एक उत्पाद भी घोषित कर रखा है. अब यहां के किसान केले की फसल लेने के साथ इसके कई तरह के बाई प्रोडक्ट भी बना रहे है. नतीजतन उत्तर प्रदेश में केले की खेती का क्रेज बढ़ा है.

फफूंद जनित फ्यूजेरियम विल्ट रोग केले की फसल के लिए बेहद हानिकारक है. गंभीर संक्रमण होने पर केले की फसल बर्बाद हो सकती है. हाल के कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई केला उत्पादक क्षेत्रों में इसका प्रकोप देखा गया. अयोध्या का सोहावल ब्लॉक जो केले की खेती के लिए जाना जाता है, वहां 2021 में इसका व्यापक प्रकोप देखा गया. इसी तरह प्रदेश के प्रमुख केला उत्पादक क्षेत्रों मसलन महाराजगंज, संत कबीर नगर, अम्बेडकर नगर और कुशीनगर जिलों में केले की फसल पर फ्यूजेरियम विल्ट रोग (टी आर 4) का गंभीर प्रकोप सामने आया था. हाल के सर्वेक्षणों में भी लखीमपुर और बहराइच जिलों में व्यापक रूप से रोग के संक्रमण की पुष्टि हुई है. रोग का संक्रमण केले के तने के भीतरी भाग में होता है. संक्रमित केले के पौधे के तने का भीतरी हिस्सा क्रीमी कलर का न होकर कत्थई या काले रंग का हो जाता है.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश केले की फसल का रकबा लगभग 70000 हेक्टेयर और उत्पादन 3.172 लाख मीट्रिक टन से अधिक है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी करीब 45.73 मीट्रिक टन है. कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, महाराजगंज, अयोध्या, बहराइच, अंबेडकरनगर, बाराबंकी, प्रतापगढ़ और कौशांबी जिले शामिल हैं. सीतापुर और लखीमपुर जिलों में भी केले की फसल का रकबा ठीक-ठाक है.

विकेटी/एएस