New Delhi, 15 सितंबर . India की शास्त्रीय संगीत परंपरा में जिन नामों ने अमिट छाप छोड़ी, उनमें India रत्न एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी का स्थान सर्वोपरि है. 16 सितंबर 1916 को मदुरै (तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी) में जन्मीं सुब्बुलक्ष्मी ने सात दशकों से भी लंबा संगीत सफर तय किया और 1998 में India का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, India रत्न, प्राप्त करने वाली पहली संगीतकार बनीं. उन्हें स्नेहपूर्वक ‘एम. एस. अम्मा’ कहा जाता था.
सुब्बुलक्ष्मी का जन्म इसाई वेल्लालार समुदाय में हुआ, जो पारंपरिक रूप से संगीत और नृत्य से जुड़ा था. उनकी मां, मदुरै शन्मुखवादिवु अम्माल, वीणा वादक थीं. पिता सुब्रमणिया अय्यर पेशे से वकील थे, परंतु जीवन में कम ही भूमिका निभा पाए. मां से मिली संगीत परंपरा ने ही एम. एस. को कर्नाटक संगीत की दुनिया में प्रवेश कराया. प्रारंभिक दिनों में उन्होंने मदुरै और फिर चेन्नई में प्रशिक्षण लिया. सेम्मंगुड़ी श्रीनिवासा अय्यर और नारायणराव व्यास जैसे उस्तादों से उन्होंने रागों की बारीकियां सीखी.
सिर्फ 10 वर्ष की आयु में उन्होंने पहला गीत “मरगथा वदिवु” रिकॉर्ड किया और 11 वर्ष की उम्र में सार्वजनिक प्रस्तुति दी. 1933 में मद्रास म्यूजिक अकादमी के वार्षिक सम्मेलन में गाने वाली वे पहली महिला बनीं.
1940 में उन्होंने पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े टी. सदाशिवम से विवाह किया. सदाशिवम ने न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन में सहारा दिया, बल्कि उनके संगीत करियर को भी दिशा दी. उन्हीं के मार्गदर्शन में सुब्बुलक्ष्मी ने भक्ति और आध्यात्मिक रचनाओं को अपने संगीत का केंद्र बनाया.
सुब्बुलक्ष्मी ने 1938 से 1947 के बीच छह फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें ‘सेवासदनम’ और ‘शकुंतलई’ प्रमुख थीं, लेकिन उनकी सबसे लोकप्रिय भूमिका रही संत कवयित्री मीरा बाई की, जिसे उन्होंने 1945 में तमिल और 1947 में हिंदी फिल्म ‘मीरा’ में निभाया. इस फिल्म ने उन्हें पूरे India में लोकप्रिय बना दिया. इसके बाद उन्होंने केवल संगीत साधना पर ध्यान केंद्रित किया.
सुब्बुलक्ष्मी का गायन तकनीकी निपुणता, तेज़ ब्रिगा और भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए जाना जाता था. बाद के वर्षों में उन्होंने अधिकतर भजन और भक्तिगीत गाए. उनके द्वारा गाए ‘भज गोविंदम’, ‘हनुमान चालीसा’ और ‘वेंकटेश्वर सुप्रभातम्’ आज भी हर घर में गूंजते हैं. उन्होंने मेलारगमालिका (72 रागों की रचना) और रागम-तानम-पल्लवी जैसी कठिन कृतियों में भी अपनी पकड़ दिखाई.
सुब्बुलक्ष्मी ने भारतीय संगीत को विश्व पटल पर पहुंचाया. 1963 में एडिनबर्ग फेस्टिवल, 1966 में न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र महासभा, 1977 में कार्नेगी हॉल और 1982 में लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में उनकी प्रस्तुतियां ऐतिहासिक मानी जाती हैं. संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने कांची पीठाधीश्वर चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती द्वारा रचित “मैत्रीम भजत” प्रस्तुत किया, जिसने शांति और करुणा का संदेश दिया.
सुब्बुलक्ष्मी को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले. इनमें पद्म भूषण (1954), रेमन मैग्सेसे पुरस्कार (1974), पद्म विभूषण (1975), कालिदास सम्मान (1988) और India रत्न (1998) शामिल हैं. साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और विश्व भारती विश्वविद्यालय सहित कई संस्थानों ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की.
संगीत के साथ-साथ सुब्बुलक्ष्मी ने समाजसेवा को भी साधना बनाया. उन्होंने 200 से अधिक लाभार्थी कार्यक्रमों से भारी धनराशि दान की. इस राशि से कस्तूरबा गांधी ट्रस्ट, संकरी नेत्रालय, कैंसर इंस्टीट्यूट, चेन्नई और तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम जैसे संस्थान लाभान्वित हुए.
1997 में पति सदाशिवम के निधन के बाद सुब्बुलक्ष्मी ने सार्वजनिक जीवन से दूरी बना ली. 2004 में 88 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ. उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी गई.
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डीएससी/एएस