भागलपुर, 26 मार्च . भागलपुर, जिसे सिल्क सिटी के नाम से जाना जाता है, आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. सदियों पुराना यह सिल्क उद्योग, जो भागलपुर की पहचान और समृद्धि का प्रतीक था, धीरे-धीरे बेंगलुरु और अन्य शहरों की ओर पलायन कर रहा है. कारीगर, जो पीढ़ियों से इस उद्योग से जुड़े रहे हैं, आज रोजगार और संसाधनों की कमी के कारण अपने घर-बार छोड़ने को मजबूर हैं.
भागलपुर का नाम सुनते ही मन में रेशमी वस्त्रों की झलक आती थी. यह शहर भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अपनी उच्च गुणवत्ता वाली सिल्क के लिए मशहूर था. महाभारत काल में यह अंग प्रदेश की राजधानी रहा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान का घर भी था. गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर की भाषा अंगिका है और इसका अर्थ सौभाग्य का शहर है, लेकिन यह सौभाग्य अब धीरे-धीरे फीका पड़ता जा रहा है.
भागलपुर का सिल्क उद्योग वर्षों से सरकारी उदासीनता और बुनियादी सुविधाओं की कमी के चलते हाशिए पर चला गया है. जहां कभी हजारों बुनकर अपने हुनर से वैश्विक बाजार में भागलपुरी सिल्क की धूम मचाते थे, वहीं आज वे संसाधनों और मांग की कमी से जूझ रहे हैं. रोजगार और उचित मेहनताने की तलाश में यहां के बुनकर बेंगलुरु, पश्चिम बंगाल और अन्य बड़े शहरों का रुख कर रहे हैं.
भागलपुर का सिल्क उद्योग प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहा है. ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, मुगलों और अंग्रेजों के शासनकाल में यहां के सिल्क वस्त्रों की भारी मांग थी. स्वतंत्रता के बाद भी यह उद्योग फला-फूला और स्थानीय कारीगरों को रोजगार का प्रमुख स्रोत बना, लेकिन बदलते समय के साथ यह उद्योग अब संकट के दौर से गुजर रहा है.
आज का भागलपुर महाभारत काल में अंग प्रदेश के नाम से जाना जाता था. यह कर्ण का राज्य अंग प्रदेश था. कहा जाता है कि महाभारत काल में अंग प्रदेश में रेशम का जिक्र मिलता है. इससे समझा जा सकता है कि इसका इतिहास कितना पुराना है.
भागलपुर सिल्क उद्योग के संकट की सबसे बड़ी वजह यह है कि अब बड़े व्यापारी और उद्यमी इस कारोबार को दक्षिण भारत, विशेष रूप से बेंगलुरु ले जा रहे हैं. बेंगलुरु में बेहतर तकनीक और मशीनरी उपलब्ध है, जिससे उत्पादन लागत कम होती है. कच्चे माल की बेहतर आपूर्ति होती है, जबकि भागलपुर में इसे मंगाने में समय और लागत अधिक लगती है. वहां बाजार और निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं, जिससे उद्यमियों को ज्यादा मुनाफा मिलता है.
भागलपुर के बुनकर अब भी पारंपरिक हथकरघा पर काम करते हैं, जबकि बेंगलुरु में आधुनिक मशीनों का उपयोग हो रहा है. इससे उत्पादन में तेजी आती है और लागत भी कम हो जाती है. नतीजतन, बेंगलुरु में बने सिल्क उत्पाद अधिक प्रतिस्पर्धी कीमतों पर बाजार में आ जाते हैं और भागलपुरी सिल्क को पीछे छोड़ देते हैं.
भागलपुर के हजारों बुनकर इस उद्योग पर निर्भर थे, लेकिन अब वे तेजी से रोजगार के लिए बेंगलुरु, सूरत और अन्य शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. स्थानीय बुनकरों का कहना है कि कम मजदूरी और अनिश्चित भविष्य के कारण वे भागलपुर में काम जारी नहीं रख सकते. सरकारी योजनाओं का अभाव और कर्ज का बोझ भी उन्हें बाहर जाने के लिए मजबूर कर रहा है.
भागलपुर सिल्क उद्योग को बचाने के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई गईं, लेकिन वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो सकीं. कारीगरों का कहना है कि सस्ते कच्चे माल की व्यवस्था नहीं की गई, जिससे उनकी उत्पादन लागत बढ़ गई. तकनीकी प्रशिक्षण और आधुनिक मशीनों की सुविधा नहीं मिली, जिससे वे प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए.
स्थानीयों का कहना है कि अगर सरकार इस उद्योग को बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाती, तो जल्द ही यह ऐतिहासिक धरोहर पूरी तरह से खत्म हो सकती है. खासकर सस्ते कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने और बुनकरों को आर्थिक सहयोग देने की आवश्यकता है. स्थानीय स्तर पर बड़े उद्यम स्थापित किए जाएं, जिससे बुनकरों को रोजगार के लिए बाहर न जाना पड़े.
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डीएससी/