सेना का गौरव, राष्ट्र का स्वाभिमान : सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे की शौर्य गाथा

New Delhi, 10 जुलाई . भारतीय सैनिकों की वीरगाथा के पन्ने को जब इतिहास पलटता है, तो सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे का नाम स्वर्ण अक्षरों में उभरकर सामने आता है. 11 जुलाई को रामा राघोबा राणे की पुण्यतिथी है, उस दिन पूरा देश अमर सपूत को नमन करता है, जिनकी वीरता, समर्पण और नेतृत्व ने भारतीय सेना के इतिहास में एक अमिट अध्याय लिखा. वर्ष 1994 में 11 जुलाई के दिन ही उनका देहांत हुआ था, लेकिन उनका जीवन आज भी प्रेरणा का स्रोत है.

सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे ने अपने साहस से न सिर्फ दुश्मन की ताकत को ध्वस्त किया, बल्कि भारत की संप्रभुता और सम्मान को अडिग रखा. उनका जीवन एक ऐसा दीपक है, जिसकी लौ हर पीढ़ी को रौशन करती रहेगी.

26 जून 1918 को कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के चेंडिया गांव में जन्मे रामा राघोबा राणे कोंकण क्षत्रिय मराठा समुदाय से थे. पिता सरकारी नौकरी में थे, जिससे राणे की पढ़ाई देश के कई हिस्सों में हुई. बचपन में ही 1930 के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उनमें देशभक्ति की लौ जल चुकी थी. 1940 में जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, तभी राणे ने भारतीय सेना में भर्ती होने का निर्णय ले लिया था. तारीख थी 10 जुलाई 1940 जब वह बॉम्बे इंजीनियर्स में शामिल हुए. उनकी दक्षता और अनुशासन ने उन्हें बैच का ‘सर्वोत्तम रिक्रूट’ बना दिया, जिसके बाद उन्हें नायक और फिर कमांडेंट की छड़ी प्रदान की गई.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा में जापानी सेनाओं से लोहा लेते हुए राणे ने वीरता की ऐसी मिसाल पेश की कि उन्हें हवलदार बना दिया गया. उन्होंने दुश्मन के गोला-बारूद के ठिकानों को नष्ट किया, अपनी टुकड़ी को नदियां पार करवाईं और सूझबूझ के साथ दुश्मन से पीछा छुड़ाकर सुरक्षित वापसी करवाई. इसके बाद, 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने वो कर दिखाया जो असंभव प्रतीत होता था. उन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट बनाकर जम्मू-कश्मीर मोर्चे पर तैनात किया गया. इस युद्ध में उनका साहस भारत की संप्रभुता और सेना की मर्यादा की रक्षा की कहानी बन गया. उनकी वीरता आज भी सेना के हर जवान को प्रेरणा देती है.

8 अप्रैल 1948 को नौशेरा-राजौरी रोड एक ऐसा दिन और स्थान जिसने रामा राघोबा राणे को इतिहास के सबसे बहादुर सैनिकों की सूची में शामिल कर दिया. पाकिस्तान समर्थित कबायली लड़ाकों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया था. सेना को वहां पहुंचने के लिए रास्ता साफ करना बेहद ज़रूरी था. यह काम सौंपा गया सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे और उनकी यूनिट को. रास्ते में सुरंगें, पाइन के बड़े-बड़े पेड़, उड़ा दिए गए पुल और दुश्मन की मशीनगनों की गोलियों की बौछार- हर बाधा के सामने राणे दीवार बन खड़े हो गए. मोर्टार से घायल होने के बावजूद उन्होंने अपने घाव पर पट्टी बांधी और काम जारी रखा. कई रातें बिना भोजन और विश्राम के, अपनी जान की परवाह किए बिना, वह केवल भारत की सेना को आगे बढ़ाने में जुटे रहे. उनकी इस अद्भुत वीरता और कार्यकुशलता के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से नवाजा गया.

रामा राघोबा राणे सिर्फ एक सैनिक नहीं, एक अच्छे लीडर भी थे, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी टुकड़ी को न केवल दिशा दी, बल्कि आत्मविश्वास भी भरा. उनका मानना था कि एक सच्चा सैनिक अपने देश के लिए मरता नहीं, वह जीता है ताकि बाकी बचे जी सकें. उनके नेतृत्व में ही भारतीय सेना 12 अप्रैल 1948 को राजौरी तक पहुंच सकी और उस पर दुबारा कब्जा किया था.

भारतीय नौसेना ने करवार स्थित वॉरशिप म्यूज़ियम में उनकी प्रतिमा स्थापित की है. शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ने एक तेल टैंकर का नाम ‘एमटी लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे, पीवीसी’ रखा. अपने सेवा काल में उन्होंने पांच बार ‘मेंशन-इन-डिस्पैच’ और आर्मी चीफ से विशेष प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किया.

3 फरवरी 1955 को उन्होंने लीला राणे से विवाह किया और चार बच्चों के पिता बने. 25 जून 1968 को 21 वर्षों की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हुए. उनका जीवन केवल युद्ध की गाथाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक पारिवारिक व्यक्ति, एक प्रेरक और एक सजग नागरिक की भूमिका भी निभाई. 11 जुलाई 1994 को उन्होंने अंतिम सांस ली, लेकिन रामा राघोबा राणे आज भी हर उस युवा सैनिक की प्रेरणा हैं जो भारत माता की रक्षा का संकल्प लेता है. उनके बलिदान की गूंज पीढ़ियों तक देशभक्ति का स्वर बनकर गूंजती रहेगी.

पीएसके/जीकेटी